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इसी तरह गुरुदेव 'पाखेट' के अन्तर्गत "पारधी" की अपनी व्याख्या करते हैं ।
पारधी दुस्ट सद्भाव, रौद्रं ध्यान च संजुतं । आरति आरक्तं जेन, ते पारधी च संजुतं ॥ जो निठुर भावों से भरा, कटु रौद्र का जो धाम है । सर्वज्ञ कहते 'पारधी' उस जीव का ही नाम है। जो जीव आर्त-ध्यान में ही, लिप्त है आसक्त है ।
वह भी सरासर 'पारधी' की भावना से युक्त है ॥ म्वामी जी की अपनी दूसरी विशेषता है बाह्य डम्बरों के प्रति जागरूकता,- बाह्याडम्बरों को समूल नष्ट करने की प्रवृत्ति जैसी कि दाद. कबीर, नानक श्रादि सभी सन्तों में समानरूप से व्यान थी। बाह्याडम्बरों पर उन्होंने कहीं पर्दा नहीं डाला है, प्रत्युन उमकी उन्होंने जी भरके भर्त्सना की है। प्रात्मप्रतीति के विना जप, तप, क्रिया, व्रत साधने वालों के प्रति उनका व्यक्तित्व कहता है
जस्य मंमिक्त हीनस्य, उग्रं तव व्रत मंजुतं । मंजम क्रिया अकार्ज च, मूल विना वृष जथा ॥
जो उग्र तप तपता है, पर श्रद्धान से जो हीन है । वह मूर्ख अपना तन बनाता, निष्प्रयोजन क्षीण है। जिस भांति होती वृक्ष की रे ! मृल ही आधार है ।
उस भांति जप, तप, क्रिया में दर्शन प्रथम है-सार है ॥ एक स्थल पर वे पुन: कहते हैं
संमिक्त विना जीवा, जाने अंगाई श्रुत बहु भेयं । अनेयं व्रत चरनं, मिथ्या तप वाटिका जीवो ॥
यह जीव तीनों लोक के, श्रुतज्ञान का भण्डार हो । व्रत, तप क्रिया से युक्त हो, आचार का आगार हो । पर यदि न इसके हृदय में, समक्ति-सलिल का ताल है ।
जप, तप, क्रिया, व्रत सभी, इसका एक मायाजाल है ॥ संसार की जड़वादिता पर भी वे इस ग्रन्थ में चुप नहीं बैठे हैं और एक सुधारक के नाते उन्होंने जड़पूजा को भी इसमें अछूता नहीं छोड़ा है । वे कहते हैं
अदेवं देव प्रोक्तं च, अंध अंधेन दिस्टते । मार्ग किं प्रवेसं च, अंध कूप पतति ये ॥