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देने लगते हैं। इस भावमा का ही दुसरा नाम जोवन का आध्यात्मिक पक्ष है। यह स्पष्ट है कि इस आध्यात्मिक पक्ष का मानव के विकास और उसकी सच्चो सुख शान्ति से घनिष्ट सम्बन्ध है।"
इसी धर्म की बाधारशिला पर खड़े होकर १६ वीं शताब्दी के माध्यात्मिक संत श्री गुरु सारण तरण महाराज ने कई प्रन्थ प्रस्तुत किये हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ उनके श्रावकाचार, पण्डित पूजा, मालारोहण और कमलबत्तोसो इन चार ग्रन्थों का एक संग्रह है। प्राचार खड में श्रावकाचार और विचार खंड में बाद के तीन ग्रन्थों का ( तारण त्रिवेणी का ) समावेश किया गया है। यह ग्रन्थ श्री गुरुने गृहस्थों के निमित्त लिखा है। गृहस्थों से उनका तात्पर्य उन गृहाथों से है जो जप, तर. व्रत अथवा अन्य कियाओं से तो हीन है, किन्तु जो अनात्मवादी नहीं हैं; आत्मा पर जिनको श्रद्धान है और जो कम से कम इतना अवश्य जानते हैं कि शरीर अलग वस्तु है और आत्मा अलग, शरीर नाशवान है, जबकि भात्मा अमर है, ध्रुव है और भविनाशी है।
जैन धर्म के भंडार में प्राचार विचार के ग्रन्थों को कमो नहीं। अनेकों प्राचार्यों ने इस विषय में ज्ञान दान दिया है और भूनती भटकती मानवता को अनेकों तरह से मार्ग बताया है, लेकिन उनमें और तारणस्वामी के ग्रन्थों में मौलिक अन्तर है, और वह अन्तर यह है कि जहां अन्यान्य भाचार्यों ने गृहस्थों के पूर्ण व्यावहारिक सांचे में ही ढल जाने की प्रेरणा की है, वहाँ श्री तारणस्वामी ने सबको अध्यात्मवाद की भोर ही मोड़ने का प्रयास किया है, फिर चाहे वह विषय पूर्ण व्यावहारिक ही क्यों न रहा हो । यदि पाठक इस ग्रन्थ को आद्योपान्त पढ़ेंगे तो उन्हें यह अनुभव करते देर न लगेगी कि पूरे ग्रन्थ में स्वामीजी की एक ही टेर चल रही है और वह टेर है
देवं गुरुं श्रुतं वंदे धर्म शुद्धं च विंदते । तीर्थ अर्थलोकं च स्नानं च शुद्धं जलं ॥
आतम ही है देव निरंजन, आतम ही सद्गुरु भाई ! आतम शास्त्र, धर्म आतम ही, तीर्थ आत्म हो सुखदाई ॥ आत्म-मनन ही है रत्नत्रय, पूरित अवगाहन सुखधाम ।
ऐसे देव, शास्त्र, सद्गुरुवर, धर्म, तीर्थ को सतत प्रणाम ॥ वे मनुष्यों के कार्य-कलापों को नहीं, प्रत्युत उनकी वृत्ति को ही अध्यात्मवाद की ओर एकवारगो मोड़ देना चाहते हैं, ताकि जड़वाद के जाल में वह किसी तरह फंस ही नहीं सके. क्योंकि आपके विचार से जिसके हृदय में जड़वाद का बसेरा हो गया, वहां शुद्ध बुद्ध परमात्मा का प्रकाश फिर जाता ही नहीं। अपने इसी ग्रंथ की २० वी गाथा में वे कहते हैं
अनृतं विनासी चिन्ते, असत्यं उत्साहं कृतं । अन्यांनी मिथ्या सद्भाव, सुद्ध बुद्ध न चिन्तए ॥