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जिनलाभ सूरि के बिहार स्थानों के लिये "ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह" में ३४ दोहे पृ० ४१४-१६ में छप चुके हैं। ___ सम्वत् १८२४ में बीकानेर में थे। तदनन्तर १८२६ से १८३३ तक गुजरात-काठियावाड़ घूमे। सम्वत् १८३४ आबू व मारवाड़ के तीर्थों को यात्रा करके सं. १८३८ से ४० तक आप जैसलमेर में रहे। विद्याध्ययन के अनन्तर आप अधिकांश अपने गुरु वाचक अमृतधर्म जी के साथ ही विहार करते थे। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। सम्बत् १८४३ में पूर्व देश को अोर विहार
भो आपने अपने गुरु श्री के साथ हो किया था। सम्वत् १८४३ में बालूचर में आपका चौमासा हुआ। और वहां भगवती जैसे महान गम्भीर सूत्र की वाचना (व्याख्यान) की थो। सम्वत् १८४८ तक आप अपने गुरु श्री के साथ पूर्व प्रांत में ही विहार करते हुए धर्मोपदेश व धर्म प्रचार करते रहे। पूर्व प्रदेश में विहार करने से आपकी भाषा में हिन्दो का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इसके पश्चात् वहां से विहार कर बीकानेर (सम्वत् १८५० में) पधार गये थे। सम्वत् १८५० का चातुर्मास बोकानेर कर सम्वत् १८५१ का गतुर्मास अपने गुरु श्री के साथ हो जैसलमेर किया और वहीं सम्वत् १८५१ माघ शुक्ला ८ को वाचक अमृतधर्मजी का स्वर्गवास हुआ। इसके पहले और पश्चात्
आपने अनेकों स्थानों में विहार कर धर्म प्रचार किया, ग्रन्थ निर्माण किया, तीर्थों की यात्राएं की, जिनालय, जिनबिम्बों को प्रतिष्ठाय को। उनका संवतानुक्रम से भिन्न भिन्न सूचि-मय निर्देश किया गया है। अतः यहां समुच्चय आदि से आपके विहार को सम्वतानुक्रम से यथाज्ञात सूचि दी जातो है जिससे आपके उद्यत विहार का भलो-भांति परिचय मिल जायगा।
अब सं० १८२४ से आपके विहारानुक्रम को सूचि नीचे दी जाती है
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