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लोक भाषा में प्रचलित देशी शब्द संस्कारित होकर संस्कृत रूप धारण करते हैं। 52. उक्तिरत्नाकर
देशीय शब्दों के ज्ञापन के लिए 17वीं शताब्दी में जैन साधु सुन्दरगणि ने उक्तिरत्नाकर की रचना कर उक्तिमूलक शब्दों का संग्रह किया। इस ग्रन्थ में देशी शब्दों के संस्कृत रूप तो दिये ही हैं, साथ ही ऐसे शब्द भी मिलते हैं, जो संस्कृत से गढ़े गये हैं। यथा - मिठाई - मृश्टाटिका। 53. उपदेशपद (उवएसपद) ___ उपदेशपद याकिनीमहत्तरा के धर्मपुत्र और विरहांक पद से प्रख्यात हरिभद्रसूरि की रचना है, जो कथा साहित्य का अनुपम भंडार है। ग्रंथकर्ता ने धर्मकथानुयोग के माध्यम से इस कृति में मन्द बुद्धिवालों के प्रबोध के लिए जैनधर्म के उपदेशों को सरल लौकिक कथाओं के रूप में संग्रहित किया है। इसमें 1039 गाथायें हैं जो आर्या छन्द से लिखी गई हैं। लेखक ने उत्तराध्ययननियुक्ति, नन्दि और सन्मतिप्रकरण आदि की गाथायें अपनी मूल रचना में गर्भित कर ली हैं। उपदेश पद पर स्याद्धादरत्नाकर के प्रणेता वादिदेवसूरि के गुरु मुनिचन्द्रसूरि की सुखबोधिनी नाम की टीका है जो प्राकृत और संस्कृत में पद्य और गद्य में लिखी हैं, और अनेक सुभाषितों और सूक्तियों से भरपूर है। मुनिचन्द्रसूरि प्राकृत और संस्कृत भाषाओं के बड़े अच्छे विद्वान थे, और अणहिल्लपाट नगर में विक्रम संवत् 1194 ईसवी सन् 1117 में उन्होंने इस टीका की रचना की थी। यह मुक्तिकमल जैन मोहनमाला, बड़ौदा से सन् 1923-5 में दो भागों में प्रकाशित है। 54. उपदेशमालाप्रकरण । ___ मलधारि हेमचन्द्रसूरि की दूसरी उल्लेखनीय रचना उपदेशमाला या पुष्पमाला है। भवभावना की भाँति उपदेशमाला भी विषय, कवित्य और शैली की दृष्टि से
अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें 505 गाथाएँ हैं जो निम्नलिखित बीस अधिकारों में विभक्त हैं। : 1अभयदान, 2 ज्ञान, 3 दान, 4 शील, 5 तप, 6 भावना, 7 सम्यक्त्वशुद्धि, 8 चारित्रशुद्धि, 9 इन्द्रियजय, 10 कषायनिग्रह, 11 गुरुकुलवास, 12 दोष विकटना,13 विराग, 14 विनय, 15 वैयावृत्य, 16 स्वाध्याय, 17 अनायतनत्याग, 18 परपरिवाद निवृत्ति, 19 धर्मस्थिरता, 20 परिज्ञान। इस पर लेखक के
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