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स्पष्ट है कि गुजरात के अणहिलवाड के राजा दुर्लभराज की सभा में नामधारी आचार्यों के साथ जिनेश्वरसूरि ने वाद-विवाद कर, उनका पराजय किया और वहाँ वसतिवास की स्थापना की। जिनेश्वरसूरि के भाई का नाम बुद्धिसागर था। ये मध्यदेश के निवासी और जाति के ब्राह्मण थे, इनके पिता का नाम कृष्ण था। जिनेश्वरसूरि ने जैनधर्म का खूब प्रचार और प्रसार किया। इसके द्वारा रचित पाँच ग्रन्थ हैं- (1) प्रमालक्ष्म, (2) निर्वाणलीलावतीकथा, (3) षट्स्थानप्रकरण, (4) पंचलिंगीप्रकरण और (5) कथाकोशप्रकरण
जिनेश्वरसूरि का श्वेताम्बर सम्प्रदाय में एक विशिष्ट स्थान है। इन्होंने शिथिलाचारग्रस्त चैत्यवासी यतिवर्ग के विरुद्ध आन्दोलन कर सुविहित या शास्त्रविहित मार्ग की स्थापना की थी और श्वेताम्बर संघ में नई स्फूर्ति और नूतन चेतना उत्पन्न की थी। इनके गुरु का नाम वर्द्धमानसूरि था और भाई का नाम बुद्धिसागरसूरि था। ये ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे पर धारा नगरी के सेठ लक्ष्मीपति की प्रेरणा से वर्धमानसूरि के शिष्य हुए थे। 136.जीतकल्पसूत्र (जीयकप्पो)
जीतकल्पसूत्र के रचयिता विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हैं। जीत या जीय का शाब्दिक दृष्टि से अर्थ है- परम्परा से आगत आचार, मर्यादा, व्यवस्था या प्रायश्चित्त से सम्बन्ध रखने वाला एक प्रकार का रिवाज । इस दृष्टि से इस सूत्र में जैन श्रमणों के आचार-व्यवहार से सम्बन्धित प्रायश्चित्तों पर विचार किया गया है। 103 गाथाओं में प्रायश्चित्त का महत्त्व तथा आत्मशुद्धि में उसकी उपादेयता का प्रतिपादन किया गया है। इसमें प्रायश्चित्त के 10 भेदों का वर्णन हुआ है - 1.आलोचना2. प्रतिक्रमण 3.मिश्र-आलोचना-प्रतिक्रमण 4.विवेक 5.व्युत्सर्ग 6. तप 7.छेद 8. मूल 9.अनवस्थाप्य 10. पारांचिक। 137.जीतकल्पभाष्य
जीतकल्पभाष्य के रचयिता भी जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण हैं। प्रस्तुत भाष्य में वृहत्कल्प-लघुभाष्य, व्यवहारभाष्य, पन्चकल्पमहाभाष्य, पिण्ड नियुक्ति प्रभृति अनेक ग्रंथों से गाथाएँ उद्धृत की गई हैं। अतः यह एक संग्रह ग्रंथ है। मूल
1140 प्राकृत रत्नाकर