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प्रसिद्ध व्याकरण रहा हो अतः भरत ने केवल सामान्य नियमों का ही संकेत करना आवश्यक समझा है । भरत के ये व्याकरण के नियम प्रमुख रूप से शौरसेनी प्राकृत के लक्षणों का विधान करते हैं ।
320. भरतमुनि और शौरसेनी प्राकृत -
आचार्य भरतमुनि इस दिशा में सम्भवतः सर्वप्रथम - लक्षण - शास्त्री हैं, जिन्होंने क्षेत्रीय आधार पर प्राकृतों का वर्गीकरण किया और उन्हें शौरसेनी, मागधी, अवन्ति, प्राच्या एवं अर्धमागधी जैसे भेदों में विभक्त कर शौरसेनी को सर्वाधिक महत्त्व दिया और संस्कृत नाटककारों को शौरसेनी प्राकृत के प्रयोग करने का विमर्श भी
दिया । यथा
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शौरसेनी समाश्रित्य भाषा कार्या तु नाटके ।
अथवा छन्दतः कार्या देशभाषा - प्रयोक्तृभिः ॥ - ( नाट्यशास्त्र 14/ 48 ) अर्थात् सामान्यजनों की सुख-दुख सम्बन्धी या नीतिगत भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए नाटकों में शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग करना चाहिए । यदि किसी क्षेत्रीय प्राकृत में नाटक लिखना हो तो उस क्षेत्र की भाषा वहाँ के प्रचलित छन्दों के माध्यम से प्रस्तुत करना चाहिए ।
वररुचि एवं मार्कण्डेय ने क्रमशः अपने प्राकृत- प्रकाश एवं प्राकृत सर्वस्व नामक व्याकरण ग्रन्थों में शौरसेनी की प्राचीनता तथा गुणवत्ता को स्वीकार कर उसे सभी प्राकृतों की प्रकृति माना है । उसके अनुसार मागधी एवं पैशाची जैसी प्रमुख प्राकृतों तथा प्राच्या, चाण्डाली, अवन्ती एवं महाराष्ट्री आदि की प्रकृति शौरसेनी प्राकृत है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी प्रासंगिक प्राकृतों के विशेष लक्षणों का वर्णन कर “शेषं शौरसेनीवत् " कहकर शौरसेनी प्राकृत को प्रमुख माना है।
321. भवभावना
भवभावना के कर्त्ता मलधारि हेमचन्द्रसूरि हैं। प्रश्नवाहन कुल के हर्षपुरीय नामक विशाल गच्छ में जयसिंह सूरि हुए, उनके शिष्य का नाम अभयदेवसूरि था । अभयदेव अल्प परिग्रही थे और अपने वस्त्रों की मलिनता के कारण मलधारी नाम से प्रसिद्ध थे। पंडित श्वेतांबराचार्य भट्टारक के रूप में प्रसिद्ध मलधारि हेमचन्द्रसूरि इन्हीं अभयदेव के बहुश्रुत शिष्य थे। इन्होंने विक्रम संवत् 1170 सन् 1123 में
प्राकृत रत्नाकर 0 277