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गोवर्धन आचार्य आदि काव्य और अलंकार-ग्रन्थों के रचयिताओं ने इस काव्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है और इसकी गाथाओं को अलंकार, रस आदि के उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है।
कविवत्सल हाल अथवा आंध्रवंश के सातवाहन (शालिवाहन) को इस कृति का संग्रहकर्त्ता माना जाता है। सातवाहन और कालकाचार्य के बीच सम्बन्ध था। सातवाहन प्रतिष्ठान में राज्य करते थे तथा बृहत्कथाकार गुणाढ्य और व्याकरणाचार्य शिववर्मा और आदि विद्वानों के आश्रयदाता थे। भोज के सरस्वती कंठाभरण (2.15) के अनुसार जैसे विक्रमादित्य ने संस्कृत भाषा के प्रचार के लिए प्रयत्न किया, उसी प्रकार शालिवाहन ने प्राकृत के लिए किया । राजशेखर काव्यमीमांसा (पृ. 50) के अनुसार अपने अंतःपुर में शालिवाहन प्राकृत में ही बातचीत किया करते थे ( श्रूयते च ककुंतलेषु सातवाहनो नाम राजा, तेन प्राकृतभाषात्मकन्तःपुर एवेति समानं पूर्वेण ) । बाण ने अपने हर्षचरित में सातवाहन को प्राकृत सुभाषित - रत्नों का संकलनकर्त्ता कहा है। इनका समय ईसवी सन् 69 माना जाता है। गाथासप्तशती के ऊपर 18 टीकायें लिखी जा चुकी हैं, जैन विद्वानों ने भी टीका लिखी हैं। जयपुर के श्री मथुरानाथ शास्त्री ने इस पर व्यंग्यसर्वकषा नाम की संस्कृत में पांडित्यपूर्ण टीका लिखी है। 451. हीरालाल जैन (प्रोफेसर )
बीसवीं शताब्दी जैन साहित्य के विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है जिसमें अनेक मनीषियों ने अपनी विशेष प्रतिभा द्वारा आधुनिक पद्धति में जैन साहित्य में छिपे रहस्यों को जन-जन के समक्ष उजागर किया। उनमें श्रद्धेय डॉ. हीरालाल जैन का नाम उल्लेखनीय है । इन्होंने प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं में लिखे गये आचार्यों के ग्रन्थों का कुशल संपादन, अनुवाद एवं महत्त्वपूर्ण प्रस्तावनायें लिखीं तथा ऐतिहासिक दृष्टि से आचार्यों के काल-निर्धारण आदि का कार्य कर उनको प्रकाशित किया। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहुआयामी है तथा जैन संस्कृति की प्रभावना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। डॉ. हीरालाल जैन का जन्म 18 सितम्बर 1899 को मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के गांगई नामक ग्राम में हुआ था । उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए आप इलाहाबाद गये। 1920 में स्नातक
प्राकृत रत्नाकर 0 381