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करता है। उद्भट विद्वान् व सहृदयत्व कवि होने के साथ ही आचार्य हेमचन्द्र एक उदारमना सन्त, प्रगतिशील समाजसुधारक, उत्साही धर्मप्रचारक एवं प्रभावशाली उपदेशक भी थे। गुजरात प्रांत में जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में उनका योगदान किसी भी अन्य आचार्य से अधिक रहा। गुजरात के तत्कालीन शासक सिद्धराज जयसिंह व कुमारपाल उनका अत्यधिक सम्मान करते थे। यहाँ तक कि कुमारपाल उनके व्यक्तिगत संपर्क व उपदेशों के प्रभाव से जैनधर्म का अनुयायी हो गया था। गुजरात के समकालीन राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक जीवन पर हेमचन्द्र का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने गुजरात में विद्यानुशीलन, शास्त्राभ्यास व साहित्य-साधना का एक उच्चस्तरीय वातावरण बनाने में अपूर्व योगदान किया। हेमचंद ने अपने युग में प्रचलित प्रायः सभी प्रधान शास्त्रों का मंथन कर स्वयं विविध विषयों पर सरल व सुबोध शैली में अनेक विश्वकोषात्मक ग्रंथों की रचना की तथा विद्वान् व कर्मठ शिष्यों की मंडली तैयार करके गुजरात में संस्कृति, साहित्य विशेष रूप से शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन व प्रणयन की एक सशक्त परंपरा का सूत्रपात किया।
हेमचन्द्र का द्वयाश्रयाकाव्य, सिद्धहेमप्रशस्ति तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुष में अन्तर्भूत महावीर चरित आदि भी उनके जीवन पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् व्यूहलर ने हेमचन्द्र के जीवन व कृतित्व पर एक विस्तृत निबन्ध लिखा है। आचार्य हेमचन्द्र का जन्म विक्रम संवत् 1145 (1088 ई.) में गुजरात प्रांत के अन्तर्गत धंधुका नामक ग्राम के एक वैश्यपरिवार में हुआ। उनके पिता का नाम चच्च अथवा चाचिंग तथा माता का नाम पाहिणी था। हेमचन्द का बचपन का नाम चंगदेव था। पूर्णतलगच्छ केशरी देवचन्द्रसूरि के प्रभाव से चंगदेव आठ वर्ष की अवस्था में श्रमण-धर्म में दीक्षित हुए। 22 वर्ष की आयु (1109 ई.) में आचार्य सूचक सूरि पद प्राप्त होने पर वे हेमचन्द्रसूरि नाम से प्रसिद्ध हुए। लगभग पचास वर्षों तक गुजरात के धार्मिक, सामाजिक साहित्यिक व राजनीतिक जीवन पर छाये रहकर सन् 1173 ई. में 84 वर्ष की आयु में महाराज कुमारपाल की मृत्यु के कुछ ही पूर्व, आचार्य हेमचन्द्र दिवंगत हुए। हेमचन्द्रप्रणीत साहित्य परिमाण में विशाल व विषयवस्तु की दृष्टि से
प्राकृत रत्नाकर 0 383