Book Title: Prakrit Ratnakar
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan

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Page 390
________________ परीक्षा तथा इसके बाद संस्कृत में एम.ए. किया। सन् 1925 में किंग एडवर्ड कालेज अमरावती विदर्भ मध्यप्रदेश में संस्कृत के प्राध्यापक होने के बाद सन् 1932 ई. से जो साहित्य संपादन एवं लेखन यात्रा की, वह 13 मार्च 1973 ई. उनकी मृत्यु तिथि पर्यन्त अनवरत रूप से चलती रही। ___डॉ. जैन ने सन् 1932 में णायकुमारचरिउ, सावयधम्मदोहा, सन् 1933 में पाहुडदोहा, करकंडचरिउ, सन् 1934 से 1958 तक षटखण्डागम धवला टीका, जैन शिलालेख संग्रह, तत्व-समुच्चय, सन् 1962 में “भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान" मयणपराजय, सन् 1966 में सुगंधदशमीकथा, सन् 1969 में कहाकोसु, सन् 1970 में सुदंसणचरिउ, वीरजिणिंदचरिउ, आदि ग्रंथों का सम्पादन, अनुवाद आदि कार्य किया। डॉ. जैन ने अपने जीवन-काल में लगभग 14000 पृष्ठों की अपूर्व शोध-सामग्री प्राच्य विद्या जगत् को प्रदान की है। प्रो. हीरालाल जैन ने अनेक ग्रंथों का संपादन किया परन्तु उनमें वीरसेनाचार्य की षट्खण्डागम ग्रंथ की धवला टीका के 16 खण्ड उनकी साहित्य साधना के कीर्तिस्तम्भ जैसे हैं। जिस तरीके से उन्होंने प्राच्य परम्पराओं के विशेषज्ञ विद्वानों को जोड़कर प्रामाणिक रूप से संपादन कराया आज वह साहित्यिक जगत् की अमूल्य धरोहर बन गया है। डॉ. हीरालाल जैन ने मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्णसिन्हा के विशेष अनुरोध पर सन् 1955 में प्राकृत शोध संस्थान वैशाली, के संस्थापक निदेशक का पद-भार ग्रहण किया था। प्राकृत शोध संस्थान वैशाली से त्यागपत्र देने के बाद डॉ. जैन ने जबलपुर विश्वविद्यालय में संस्कृत, प्राकृत एवं पालि विभाग के अध्यक्ष तथा कला संकायाध्यक्ष के पद पर कार्य किया। वहीं से आप सेवानिवृत्त हुए। 452. हेमचन्द्राचार्य सर्वतोमुखी प्रतिज्ञा के धनी आचार्य हेमचंद्र एक युगप्रवर्तक महापुरुष थे। जैन धर्म और जैन विद्याओं के तो वे एक महान् आचार्य व प्रकांड पंडित थे ही, ब्राह्मणों के कहे जाने वाले शास्त्रों व विद्याओं में भी वे पारंगत थे।अगाध, व्यापक व सर्वतोगामी पांडित्य के साथ-साथ वे उच्चकोटि के कवि भी थे। उनके द्वयाश्रयकाव्य उनके सहृदयत्व व शास्त्रीय वैदुष्य का मणिकांचन योग प्रस्तुत 3820 प्राकृत रत्नाकर

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