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में वसुनन्दि का उल्लेख बड़े आदरपूर्वक करते हुए उनके श्रावकाचार की गाथाओं को उद्धृत किया है। इसमें कुल मिलाकर 546 गाथायें हैं, जिनमें श्रावकों के आचार का वर्णन है। आरम्भ में सम्यग्दर्शन का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए जीवों के भेद-प्रभेद बताये गये हैं। अजीव के वर्णन में स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणुओं के स्वरूप का प्रतिपादन है । द्यूत, मद्य, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी और परदारा-सेवन नाम के सात व्यसनों का प्ररूपण है। व्रतप्रतिमा के अन्तर्गत 12 व्रतों का निर्देश है। दान के फल का विस्तृत वर्णन है। 369. वृष्णिदसा (वण्हिदसा)
अर्धमागधी आगम साहित्य में वृष्णिदशा अंतिम उपांग है। प्रस्तुत उपांग में बारह अध्ययन हैं। इनमें वृष्णिवंश के बलदेव के निषधकुमार आदि 12 पुत्रों का भगवान् नेमिनाथ के पास दीक्षित होने एवं साधना करके सर्वार्थसिद्धि विमान में जाने तथा वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष में जाने का वर्णन है। इस उपांग में पौराणिकता का प्रतिपादन अधिक हुआ है। ग्रन्थ में भगवान् अरिष्टनेमि के विषय में विशेष चित्रण हुआ है तथा उनके शासन काल में दीक्षित अनगारों का भी वर्णन प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व, प्रभुत्व, सैन्य, समृद्धि, गरिमा आदि का निरूपण हुआ है। यादव वंश के प्रागऐतिहासिक विवरण की दृष्टि से इस ग्रन्थ में महत्त्वपूर्ण सामग्री संकलित है। इसमें यदुवंशीय राजाओं के इतिवृत्त अंकित हैं, जिनकी तुलना श्रीमद्भगवत् में आये हुए यदुवंशी चरितों से की जा सकती है। हरिवंश पुराण के निर्माण के लिए भी यहाँ से उपकरण लिए गए होंगे। अरिष्टनेमि और कृष्णचरित की एक सामान्य झाँकी इस ग्रन्थ में विद्यमान है। 370. वाकपतिराज
गउडवहो के रचयिता वाक्पतिराज हैं। यह कवि कन्नौज के राजा यशोवर्मा के आश्रय में रहते थे। इस काव्य में उन्होंने कन्नौज राजा यशोवर्मा द्वारा गौड देश- मगध के किसी राजा के वध किय जाने का वर्णन किया है। काव्य के रचयिता वाक्पतिराज निश्चयतः अपने आश्रयदाता के समकालीन हैं। वाक्पतिराज ने अपने इस काव्य में यशोवर्मा का यशोगान किया है। इस काव्य के अधूरे होने से प्रतीत होता है कि वाकपतिराज ने अपने काव्य की
प्राकृत रत्नाकर 0317