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के ग्यारहवें द्वार समवतार का व्याख्यान चारित्र का विस्तार से व्याख्यान करते हुए भाष्यकार ने अनुयोगों- चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग के पृथक्करण की चर्चा की है और बताया है कि आर्य वज्र के बाद होने वाले आर्य रक्षित ने भविष्य में मति-मेघा-धारणा का नाश होना जानकर अनुयोगों का विभाग कर दिया। उस समय तक सब सूत्रों की व्याख्या चारों प्रकार के अनुयोगों से होती थी।आर्य रक्षित ने इन सूत्रों का निश्चित विभाजन कर दिया। चरणकरणानुयोग में कालिक श्रुतरूप ग्यारह अंग महाकल्पश्रुत और छेदसूत्र रखें। धर्मकथानुयोग में ऋषिभाषितों का समावेश किया। गणितानुयोग में सूर्यप्रज्ञप्ति को रखा। द्रव्यानुयोग में दृष्टिवाद को समाविष्ट किया। सिद्ध नमस्कार का व्याख्यान करते हुए आचार्य ने कर्मस्थिति समुदघात शैलेशी अवस्थां ध्यान आदि के स्वरूप का भी पर्याप्त विवेचन किया है। सिद्ध का उपयोग साकार है अथवा निराकार इसकी चर्चा करते हुए केवलज्ञान और केवलदर्शन के भेद और विभेद का विचार किया है। केवलज्ञान और केवलदर्शन क्रमशः होते हैं या युगपद् इस प्रश्न पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है। प्रस्तुत भाष्य में जैन आचार-विचार के मूलभूत समस्त तत्त्वों का सुव्यस्थित एवं सुप्ररूपित संग्रह कर लिया है। इसमें गूढ़तम दार्शनिक मान्यता से लेकर सूक्ष्मतम आचार विषयक विधि विधान का संक्षिप्त किन्तु पर्याप्त विवेचन है। 383. वीरदेवगणि
प्राकृत कथा ग्रन्थ महिवालकहा के रचयिता वीरदेवगणि हैं। ग्रन्थ के अन्त में चार गाथाओं द्वारा उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा मात्र दी है। तद्नुसार चन्द्रगच्छ में क्रमशः देवभद्र-सिद्धसेन-मुनिचन्द्रसूरि हुए। उन्हीं के शिष्य प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक हैं। इस रचना का कालसंवत् कहीं नहीं दिया गया पर रचयिता के दादा गुरु
और परदादा गुरु की कई रचनाएँ मिलती हैं। चन्द्रगच्छ से सम्बन्धित देवभद्र ने प्राकृत श्रेयांसचरित्र की रचना (वि.सं. 1248 से पहले) की थी और सिद्धसेन ने सं. 1248 से पहले पद्मप्रभचरित्र की तथा उक्त संवत में प्रवचनोद्धार पर तत्त्वविकाशिनी टीका और स्तुतियाँ लिखी थीं। संभवतः इन्हीं सिद्धसेन (सिंहसेन) ने सं. 1213 में प्रतिष्ठा कराई थी। इस आधार पर सिद्धसेन के प्रशिष्य वीरदेवगणि 326 0 प्राकृत रत्नाकर