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लिए प्रेरित करता है, सभी पात्र जगत् के मायाजाल में उलझते हैं, किन्तु गुरु के , सम्पर्क से वे संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर आत्म-कल्याण करने में लग जाते हैं। पात्रों में जातिगत, वर्गगत और साम्प्रदायिक विशेषताएँ भी वर्तमान हैं। भाषा सरल है। महाराष्ट्री प्राकृत में इस ग्रन्थ की रचना की गयी है। यत्र-तत्र अर्धमागधी का भी प्रभाव है। इस काव्य में कुल 1063 गाथाएँ हैं। 434. सिरिसिरिवालकहा ( श्रीपालकथा)
श्रीपालकथा के कर्ता सुलतान फीरोजशाह तुगलक के समकालीन रत्नशेखरसूरि हैं। उनके शिष्य हेमचन्द्र ने इस कथा को वि.सं. 1428 (सन् 1371) में लिपिबद्ध किया। इसकी भाषाशैली सरल है और विविध अलंकारों का इसमें प्रयोग है। मुख्य छंद आर्या है। कुछ पद्य अपभ्रंश में भी हैं। सब मिलाकर इसमें 1342 पद्य हैं जिनमें श्रीपाल की कथा के बहाने सिद्धचक्र का माहात्म्य बताया गया है। श्रीपालचरित्र पर और भी आख्यान संस्कृत और गुजराती में लिखे गये हैं।
श्रीपाल के आख्यान पर सर्वप्रथम एक प्राकृत कृति ‘सिरिवालकहा' मिलती है जिसमें 1342 गाथाएँ हैं। उनमें कुछ पद्य अपभ्रंश के भी हैं। प्रथम गाथा में कथा . का हेतु दिया गया है:
अरिहाइ नवपयाइंझाइत्ता हिययकमलमज्झमि।
सिरिसिद्धचक्कमाहप्पमुत्तमं किंपिजंपेमि॥ तेईसवीं गाथा में नवपदों की गणना इस प्रकार दी है:
अरिहं सिद्धायरिया उज्झाया साहुणोअसम्मत्तं।
नाणंचरणंचतवो इयपयनवगंमुणेयव्वं । इसके बाद उक्त पदों का 9 गाथाओं में अर्थ तथा माहात्म्य की चर्चा है। 288वीं गाथा से श्रीपाल की कथा दी गई है। यह कथाग्रन्थ कल्पना, भाव एवं भाषा में उदात्त है। इसमें कई अलंकारों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया है। कथानक की रचना आर्या और पादाकुलक (चौपाई) छन्दों में की गई है, पर कहीं-कहीं पज्झड़िआ छन्दों का भी प्रयोग किया गया है।
3640 प्राकृत रत्नाकर