________________
थी। प्रस्तुत ग्रन्थ में पाँच प्रस्तावों में भगवान् पार्श्वनाथ का जीवन-चरित वर्णित है। प्रथम दो प्रस्तावों में पार्श्वनाथ के पूर्व भवों की, तथा शेष तीन प्रस्तावों में वर्तमान भव की घटनाओं की निरूपण हुआ है। यह एक श्रेष्ठ चरित काव्य है, जिसमें भगवान् पार्श्वनाथ के असाधारण पुरुषार्थ का स्वाभाविक विकास उद्घाटित हुआ है। कमठ के जीव द्वारा निरन्तर परीषह किये जाने पर भी वे संयम में दृढ़ रहते हैं तथा उनके मन में किसी भी प्रकार की प्रतिशोध की ज्वाला प्रज्वलित नहीं होती है। नायक के चरित में सहिष्णुता के गुण की बेजोड़ पराकाष्टा इस चरितकाव्य को पुराणों के नजदीक लाकर खड़ा करती है। प्रसंगवश इस काव्य में तंत्र-मंत्र की विविध साधनाएँ भी वर्णित हैं। रचयिता ने इन साधनाओं का खंडन कर सम्यक् चरित की प्रतिष्ठा करते हुए कहा है कि राग, द्वेष एवं मोह का त्याग करके ही साधक का चरित निर्मल बनता है। 433. सिरिविजयचंद केवलिचरियं ___ इस चरितकाव्य के रचियता श्री चन्द्रप्रभ महत्तर हैं। ये अभयदेवसूरि के शिष्य थे। इसकी रचना वि.स. 1127 में हुई है। इस चरितकाव्य का उद्देश्य जिनपूजा का माहात्मय प्रकट करना है। अष्टद्रव्यों से पूजा किये जाने का उल्लेख है। प्रत्येक द्रव्य से पृथक-पृथक पूजा का फल बतलाने के लिए कथानकों का प्रणयन किया गया है। ये सभी कथाएँ अपने में स्वतन्त्र होती हुयी भी आपस में सम्बद्ध हैं। विजयचन्द्र केवली द्वारा कथित होने से उनके चरित में ही इनको सम्बद्ध कर दिया गया है। कथानक बड़े ही मनोरंजक और शिक्षाप्रद हैं। इस चरित काव्य में आयी हुई अवान्तर कथाओं का स्वतन्त्र अस्तित्व है। प्रत्येक कथा अपने में पूर्ण है। और हर एक का घटनाचक्र किसी विशेष उद्देश्य को लेकर चलता है। जन्म जन्मान्तर की घटनाएँ ऐसी प्रमुख उद्देश्य के चारों ओर चक्कर लगाती रहती हैं।
चरित्र चित्रण की दृष्टि से प्रायः ये सभी कथाएँ सफल हैं। इन लघु कथाओं में प्रधान अप्रधान पात्रों के कर्तव्य और कर्तव्यों की भली प्रकार योजना की गयी है। गुरु या आचार्य का सम्पर्क प्राप्त करते ही पात्र कुछ से कुछ बन जाते हैं, यह इन लघु कथाओं से स्पष्ट है। ऐश्वर्य और सौन्दर्य पात्रों को रागात्मक बन्धन के
प्राकृत रत्नाकर 0363