Book Title: Prakrit Ratnakar
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan

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Page 370
________________ प्राकृत, तर्कशास्त्र तत्वविद्या, व्याकरण, ज्योतिष तथा विभिन्न भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों के प्रकाण्ड विद्वान् थे। प्रोढ़ावस्था में उनका झुकाव व प्रवृत्ति जैनधर्म की ओर उन्मुख हो गई जो कि उनके गहन तार्किक विश्लेषण एवं अन्तर्दृष्टि का परिणाम थी। अपनी रचनाओं में प्रतिपादित जैन सिद्धान्तों के कारण उन्होंने शुद्ध तर्कशास्त्र के क्षेत्र में एक उत्कृष्ट स्थान बना लिया था। डॉ. उपाध्ये के अनुसार सिद्धसेन उस यापनीय संघ के एक साधू थे जो कि दिगम्बर जैनों में एक उपसम्प्रदाय था। उन्होंने दक्षिण भारत की ओर स्थानान्तरण किया था और पैठन में उनकी मृत्यु हुई थी। तथ्यों से यह भलीभाँति प्रमाणित हो जाता है कि वे दिगम्बर परम्परा के अनुयायी थे। दिगम्बर आगमिक साहित्य में सिद्धसेन का नाम उनकी कृति “सन्मतिसूत्र' के साथ निर्दिष्ट है। जैन साहित्य में विशुद्ध तर्कविद्या विषय पर प्राकृत भाषा में ज्ञात रचनाओं के सर्वप्रथम सम्मइसुत्तं या सन्मत्तिसूत्र अनुपम दार्शनिक रचना के कारण आचार्य सिद्धसेन का नाम प्रसिद्ध रहा है। प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के परवर्ती अनेक विश्रुत जैन विद्वानों ने उनके नाम का सादर उल्लेख किया है। यथार्थ में वे दर्शनप्रभावक आचार्य के रूप में विश्रुत रहे हैं। यद्यपि उनकी इस रचना का निर्देश सन्मतितर्कप्रकरण नाम से भी किया जाता रहा है, किन्तु इसका वास्तविक नाम सम्मइसुत्त है। "सन्मतिसूत्र' 167 आर्या छन्दों में प्राकृत भाषा में निबद्ध अनेकान्तवाद सिद्धान्त का प्रतिपादक ग्रन्थ है। अनेकान्तवाद का सिद्धान्त नयों पर आधारित है। अतएव ग्रन्थ-रचना में अनेकान्तवाद के साथ नयों का भी विवेचन किया गया है। सम्पूर्ण रचना तीन भागों में विभक्त है, जिन्हें काण्ड कहा गया है। ग्रन्थ के प्रथम काण्ड में मुख्य रूप से नय और सप्तभंगी का, द्वितीय खण्ड में दर्शन और ज्ञान का तथा तृतीय खण्ड में पर्याय-गुण से अभिन्न वस्तु-तत्व का प्रतिपादन किया गया है। निःसन्देह यह एक ऐसी रचना है जिसका प्रभाव सम्पूर्ण जैन साहित्य पर लक्षित होता है। डॉ. उपाध्ये जी ने भलीभाँति पर्यालोचन कर सन्मतिसूत्र के रचयिता आ. सिद्धसेन का समय 505-609 ई. निर्धारित किया है। 432. सिरिपासनाहचरियं(गुणचन्द्र) इस पार्श्वनाथचरित के रचयिता कहारयणकोस के कर्ता गुणचन्द्रगणि (गुणचन्द्रसूरि) हैं। वि. सं. 1168 में कवि ने भड़ौच में इस ग्रन्थ की रचना की 362 0 प्राकृत रत्नाकर

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