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है, किन्तु प्रत्येक भव की कथा स्वतंत्र अस्तित्व लिए हुए है। मूल कथा के साथ अनेक अवान्तर कथाएँ भी शामिल हैं। धर्म-दर्शन प्रधान यह ग्रन्थ सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। तत्कालीन समाज एवं संस्कृति के कई महत्त्वपूर्ण पहलू इसमें उजागर हुए हैं। तत्कालीन विभिन्न जातियों, पारिवारिक गठन, उत्सव, विवाह-प्रथा, दास-प्रथा, शिक्षा-पद्धति, भोजन, वस्त्राभूषण, व्यापारी
और सार्थवाहों के व्यापारिक नियम, नगर-ग्राम की स्थिति आदि के विविध रूप इसमें वर्णित हैं।
समराइच्चकहा के कर्ता याकिनी महत्तरा के पुत्र हरिभद्रसूरि का नाम पादलिप्त और बप्पभट्टि आचार्यों के साथ आदरपूर्वक लिया गया है। सिद्धर्षि
और रहनेवाले थे। संस्कृत और प्राकृत के ये बड़े विद्वान थे, आगमग्रन्थों की टीकायें इन्होंने लिखी है। इनका समय ईस्वी सन् की आठवीं शताब्दी है। समराइच्चकहा को हरिभद्रसूरि ने धर्मकथा नाम से उल्लिखित किया है। अपनी इस कृति के कारण उन्होनें कविरूप में प्रसिद्धि प्राप्त की थी। इस कथा में नायक नायिकाओं की प्रेमकथाओं और उनके चरित्रों का वर्णन है जो संसार का त्याग करके जैन दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। बीच-बीच में अनेक धार्मिक आख्यान गुंफित हैं जिससे कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्तों का समर्थन होता है। समराइच्चकहा जैन महाराष्ट्री प्राकृत में लिखी गई है, यद्यपि अनेक जगह शौरसेनी का प्रभाव भी पाया जाता है। इसका पद्यभाग आर्यछन्द में लिखा गया है, द्विपदी, विपुला आदि छंदो के भी प्रयोग मिलते हैं। भाषा प्रायः सरल और प्रवाहबद्ध है। कहीं पर वर्णन करते समय लंबे समासों और उपमा अलंकारों का भी प्रयोग हुआ है, जिससे लेखक के काव्य कौशल का पता चलता है। 420. समवायांग
समवायांग का द्वादशांगी में चतुर्थ स्थान है। समवायांग वृत्ति में लिखा है कि इसमें जीव-अजीव आदि पदार्थों का समवतार है, अतः इस आगम का नाम समवायो है।स्थानांग के समान समवायांग भी संख्या शैली में रचा गया है, किन्तु इसमें एक से प्रारंभ होकर कोटानुकोटि की संख्या तक के तथ्यों का समवाय के रूप में संकलन है। नंदीसूत्र में समवाय की विषय सूची इस प्रकार दी गई है -
प्राकृत रत्नाकर 0355