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423. सरस्वतीकंठाभरण
काव्यशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ सरस्वतीकंठाभरण के रचयिता भोजराज (ई. सन् 996-1051) मालवा की धारा नगरी के निवासी थे। इस ग्रन्थ में 331 प्राकृत पद्य उद्धृत हैं। प्राकृत गाथाएँ सेतुबंध, गाथासप्तशती, कर्पूरमंजरी आदि ग्रन्थों से उद्धृत की गई हैं। साहित्यिक सौन्दर्य की दृष्टि से सभी पद्य सरस एवं मधुर हैं। धीर पुरुषों की महत्ता का यह वर्णन दृष्टव्य है -
सच्चंगरुआ गिरिणो को भणइ,जलासवान गंभीरा। धीरेहिं उवमाउंतहविहु मह णात्थि उच्छाहो॥-(परिच्छेद -4)
अर्थात् - यह सत्य है, कौन नहीं कहता कि पर्वत विशाल होते हैं, तालाब गंभीर होते हैं, किन्तु तब भी धीर पुरुषों के साथ (उनकी) उपमा देने का मेरा उत्साह नहीं होता है। 424.संघदासगणी - आगमों के द्वितीय भाष्यकार संघदासगणी है।आचार्य संघदास के जीवन वृत्त के सम्बन्ध में कुछ भी सामग्री नहीं मिलती है। आगम प्रभावक मुनिश्री पुण्यविजयजी का मानना था कि संघदास गणी नामक दो आचार्य हुए हैं। एक ने बृहत्कल्पलघुभाष्य का निर्माण किया और दूसरे आचार्य ने वसुदेवहिण्डि-प्रथम खण्ड लिखा। भाष्यकार संघदासगणी का विशेषण क्षमाश्रमण है तो वसुदेवहिण्डि के रचयिता का विशेषण वाचक है। वसुदेवहिडि के रचयिता संघदासगणी भाष्यकार जिनभद्रगणी से पूर्व हुए हैं। संघदासगणी जैन आगम साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् थे।छेद सूत्रों के तलस्पर्शी अनुसंधाता थे। 425.सिद्धहेमशब्दानुशासन
प्राकृत व्याकरणशास्त्र को पूर्णता आचार्य हेमचन्द्र के सिद्धहैमशब्दानुशासन से प्राप्त हुई है। प्राकृत वैयाकरणों की पूर्वी और पश्चिमी दो शाखाएँ विकसित हुई हैं। पश्चिमी शाखा के प्रतिनिधि प्राकृत वैयाकरण हेमचन्द्र हैं (सन् 1088 से 1172)। इन्होंने विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। इनकी विद्वत्ता की छाप इनके इस व्याकरण ग्रन्थ पर भी है। इस व्याकरण का अनेक स्थानों से प्रकाशन हुआ है।हेमचन्द्र के इस व्याकरण ग्रन्थ में आठ अध्याय हैं । प्रथम सात अध्यायों
प्राकृत रत्नाकर 0357