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(1) जीव, अजीव, लोक, अलोक, स्व-समय और पर-समय का समवंतार, (2) एक से सौ संख्या तक का विकास, (3) द्वादशांगी गणिपिटक का वर्णन। इस ग्रन्थ में क्रम से पृथ्वी, आकाश, पाताल, तीनों लोकों के जीव आदि समस्त तत्त्वों का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से एक से लेकर कोटानुकोटि संख्या तक परिचय दिया गया है। आध्यात्मिक तत्त्वों, तीर्थकरों, गणधरों, चक्रवर्तियों, बलदेवों और वसुदेवों से सम्बन्धित वर्णनों के साथ भूगोल, खगोल आदि की सामग्री का संकलन भी किया गया है। 72 कलाओं, 18 लिपियों आदि का भी इसमें उल्लेख है। वस्तुतः जैन सिद्धान्त, वस्तु-विज्ञान, एवं जैन इतिहास की दृष्टि से यह आगत अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 421. सन्मतिप्रकरण (सम्मइपयरण)
सिद्धसेन दिवाकर विक्रम संवत् की 5वीं शताब्दी के विद्वान् हैं, इन्होंने सन्मतितर्कप्रकरण की रचना की है। जैनदर्शन और न्याय का यह एक प्राचीन
और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें नयवाद का विवेचन कर अनेकांतवाद की स्थापना की गई है। इस पर मल्लवादी ने टीका लिखी है जो आजकल अनुपलब्ध है। दिगम्बर विद्वान् सन्मति ने इस पर विवरण लिखा है। प्रद्युम्नसूरि के शिष्य अभयदेवसूरि ने इस महान् ग्रन्थ पर वादमहार्णव या तत्वबोधविधयिनी नाम की एक विस्तृत टीका की रचना की है।सन्मतितर्क में तीन काण्ड हैं। प्रथम काण्ड में 54 गाथायें हैं जिनमें नय के भेदों और अनेकांत की मर्यादा का वर्णन है। द्वितीय काण्ड में 43 गाथाओं में दर्शन-ज्ञान की मीमांसा की गई है। तृतीय खण्ड में 69 गाथायें हैं जिनमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तथा अनेकांत की दृष्टि से ज्ञेयतत्व का विवेचन है। 422.सम्यक्त्वसप्तति
यह हरिभद्रसूरि की कृति है। संघतिलकाचार्य ने इस पर वृत्ति लिखी है। इसमें 12 अधिकारों द्वारा 70 गाथाओं में सम्यक्त्व का स्वरूप बताया है। अष्टप्रभावकों में वज्रस्वामी, मल्लवादि भद्रबाहु, विष्णुकुमार, आर्यखपुट, पादलिप्त और सिद्धसेन का चरित प्रतिपादित किया है।
356 0 प्राकृत रत्नाकर