Book Title: Prakrit Ratnakar
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Rashtriya Prakrit Adhyayan evam Sanshodhan Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 332
________________ हीरविजयसूरि ने मुगल सम्राट अकबर बादशाह के दरबार में सम्मान प्राप्त किया था, वैसे ही जिनप्रभसूरि ने तुगलक मुहम्मदशाह के दरबार में आदर पाया था। जिनप्रभसूरि ने गुजरात, राजपूताना, मालवा मध्यप्रदेश बराड दक्षिण कर्णाटक, तेंलग, बिहार, कोशल, अवध, उत्तरप्रदेश और पंजाब आदि के तीर्थ-स्थानों की यात्रा की थी। इसी यात्रा के फलस्वरूप विविधतीर्थकल्प नामक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ की रचना की गई है। यह ग्रन्थ विक्रम संवत् 1380 ईसवीं सन 1332 में समाप्त हुआ इसमें गद्य और पद्यमय संस्कृत और प्राकृत भाषा में विविध कल्पों की रचना हुई है, जिनमें लगभग 37-38 तीर्थों का परिचय दिया है। इसमें कुल मिलाकर 62 कल्प हैं। 381. विवेकमंजरी इसके कर्ता महाकवि श्रावक आसड हैं जो भिल्लमाल श्रीमाल वंश के कटुकराज के पुत्र थे। वे भीमदेव के महामात्य पद पर शोभित थे। विक्रम संवत् 1248 ईसवीं सन् 1191 में उन्होंने विवेकमंजरी नामके उपदेशात्मक कथा-ग्रन्थ की रचना की। आसड ने अपने आपको कवि कालिदास के समान यशस्वी बताया है। वे कवि सभाअंगार के रूप में प्रसिद्ध थे। उन्होंने कालिदास के मेघदूत पर टीका, उपदेशकंदलीप्रकरण तथा अनेक जिनस्तोत्र और स्तुतियों की रचना की है। ' बाल सरस्वती नामक कवि का पुत्र तरुण वय में ही काल कवलित हो गया, उसके शोक से अभिभूत हो अभयदेवसूरि के उपदेश से कवि इस ग्रन्थ की रचना करने के लिए प्रेरित हुए। इस पर बालचन्द्र और अकलंक ने टीका लिखी है। 382. विशेषावश्यकभाष्य विशेषावश्यकभाष्य जिनदासगणी की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचना है। आवश्यकसूत्र पर तीन भाष्य लिखे गये हैं- (1) मूलभाष्य, (2) भाष्य और (3) विशेषावश्यकभाष्य। पहले के दो भाष्य बहुत ही संक्षेप में लिखे गये हैं। और उनकी बहुत सी गाथाएँ विशेषावश्यकभाष्य में मिल गई हैं अतः विशेषावश्यकभाष्य तीनों भाष्यों का प्रतिनिधित्व करने वाला है। यह भाष्य केवल प्रथम अध्ययन सामायिक पर हैं। इसमें 3603 गाथाएँ हैं। प्रस्तुत भाष्य में जैन आगम साहित्य में वर्णित जितने भी महत्त्वपूर्ण विषय 3240 प्राकृत रत्नाकर

Loading...

Page Navigation
1 ... 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430