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रूप के वैदिक बोलियों के साथ-साथ विद्यमान था। वस्तुतः ऋग्वेद की भाषा में भी कुछ सीमा तक हमें प्राकृतीकरण देखने को मिलता है। आधुनिक भाषाविदों की व्याख्या के अनुसार यह मूल प्राकृत भाषाओं के कारण है जो कि प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (छान्दस) की बोलियों के साथ-साथ उस समय निश्चित रूप से प्रचलित थीं जबकि वैदिक सूक्त रचे जा रहे थे। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि साहित्यिक छान्दस् की जनभाषा में छान्दस भाषा और प्राकृत के तत्व मिल जुले रूप में उपस्थित थे। यही कारण है कि ऋग्वेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण आदि छान्दस साहित्य में प्राकृतीकरण के तत्त्व उपस्थित हैं। छान्दस साहित्य में शब्दों के प्राकृतीकरण के साथ-साथ प्राकृत के व्याकरणात्मक तत्व भी महावीर युगीन प्राकृत के अनुसार प्राप्त होते हैं। इसीलिए डॉ. पिशेल ने भी कहा है किसब प्राकृत भाषाओं का वैदिक व्याकरण और शब्दों का नाना स्थलों में साम्य है। वैदिक भाषा में प्राकृत के जिन तत्त्वों की जानकारी दी है, उनमें से कुछ यहाँ दृष्टव्य हैं। 1.समान स्वर-व्यंजन -
वैदिक भाषा और प्राकृत के स्वर तथा व्यंजनों के प्रयोग में कई साम्य देखे जाते हैं। यथावैदिकभाषा अर्थ प्राकृत वैदिकभाषा अर्थ प्राकृत हरी हरि हरी
देव देवो दूलह दुर्लभ दूलह
नहीं ण वायू वायु वायू
रोम लोम अमत्त अमात्य अमत्त
अक्ष/आँख अच्छ महि मही महि
सूर्य सुज सुवर्ग स्वर्ग सुवग्ग
पूर्व पुव्वं पितर पिता पिअर उच्चा ऊँचा उच्चा बुद समूह बुंद महा महान् महा गेह गृह गेह पक्क पका हुआ पक्क सेन्य सैन्य सेन्नं
यज्ञ जण्ण 328 0 प्राकृत रत्नाकर
देवो
लोम अच्छ सूयर्य पुर्व
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जज्ञ