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स्वामी नहीं है, इस पर भी चिंतन किया गया है। चतुर्थ वेयणाखंड में कृति और वेदना ये दो अनुयोगद्वार हैं। वेदना के कथन की इसमें प्रधानता है। पाँचवें वग्गणाखण्ड के प्रारम्भ में स्पर्श, कर्म एवं प्रकृति नामक तीन अनुयोगद्वारों का प्रतिपादन है। वर्गणाखंड का प्रधान अधिकार बंधनीय है, जिसमें बंध, बन्धक और बन्धनीय इन तीन की मुख्य रूप से प्ररूपणा की गई है। छठे खण्ड महाबन्ध में प्रकृति, प्रदेश, स्थिति एवं अनुभाग बंध का विस्तार से विवेचन है । अपनी विशालता के कारण यह खण्ड पृथक ग्रन्थ भी माना जाता है।
षट्खण्डागम पर समय-समय पर परिकर्म, व्याख्याप्रज्ञप्ति आदि अनेक टीकाएँ लिखी गई हैं। इनमें से आचार्य वीरसेन द्वारा लिखी गई धवला टीका प्रमुख है। आचार्य वीरसेन ने बप्पगुरुदेव की व्याख्याप्रज्ञप्ति टीका के आधार पर षट्खण्डागम के प्रारम्भिक पाँच खंडों पर इस टीका ग्रन्थ की रचना की है। इसका रचना काल शक संवत् 738 अर्थात् ई. सन् 816 माना गया है। यह टीका 72,000 श्लोक, प्रमाण है । यह टीका ग्रन्थ प्राकृत - संस्कृत मिश्रित भाषा में है। छठा खण्ड महाबन्ध स्वयं आचार्य भूतबलि द्वारा विस्तार से लिखा गया है। यह महाधवल के नाम से भी प्रसिद्ध है।
414. षड्भाषाचन्द्रिका
लक्ष्मीधर ने अपनी व्याख्या लिखते हुए कहा है कि त्रिविक्रम के ग्रन्थ को सरल करने के लिये यह व्याख्या लिख रहा हूँ। जो विद्वान् मूलग्रन्थ की गूढ़ वृत्ति को समझना चाहते हैं वे उसकी व्याख्यारूप 'षड्भाषाचन्द्रिका' को देखेंवृतिं त्रविक्रमीगूढ़ां व्याचिख्या सन्ति ये बुधाः । भाड्भाषाचन्द्रिका तैस्तद् व्याख्यारूपा विलोक्यताम् ॥
वस्तुतः लक्ष्मीधर ने त्रिविक्रम के ग्रन्थ को सिद्धान्त कौमुदी के ढंग से तैयार किया है तथा उदाहरण प्राकृत के अन्य काव्यों से दिये हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में प्राकृत महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश इन छह भाषाओं का विस्तार पूर्वक विवेचन किया है। आगे चलकर इन छह भाषाओं के विवेचन के लिए अन्य कई ग्रन्थ भी लिखे गये हैं । उनमें भामकवि - 'षड्भाषाचन्द्रिका', दुर्गणाचार्य - ' षड्भाषारूपमालिका', तथा 'षड्भाषामंजरो', 'षड्भाषा सुवन्तादर्श' ‘षड्भाषाविचार' आदि प्रमुख हैं।
प्राकृत रत्नाकर 0 351