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थी। ये दोनों क्षेत्र परस्पर जुड़े हुए थे। 387. वैराग्य-रसायन प्रकरण
इस नीतिकाव्य के रचयिता लक्ष्मीलाभगणि हैं। कवि के समय, जीवन परिचय आदि के विषय में जानकारी उपलब्ध नहीं हैं। ग्रन्थ के अन्त में रइयं पगरणमयंलच्छी लाहेण वरमुणिणा (102 गा.) इतना उल्लेख है इस प्रकरण में कषाय और विकारों को दूर करने के लिए उपदेश दिया गया है। कवि ने बताया है कि वैराग्य उसी व्यक्ति को प्राप्त होता है जो भवभीरु है। भवभीरुता के अभाव में वैराग्य के वचन भी विष के समान प्रतीत होते हैं। जिस साधक को अपनी आत्मा का उद्धार करना अभीष्ट है वह संसार से अनासक्त रहता है
कवि रूपक अलंकार की योजना करता हुआ कहता है कि मानव शरीर रूपी कमल के रस का पान मृत्युरूपी भ्रमर नित्य करता रहता है। अतः जिस प्रज्वलित क्रोधाग्नि में शरीर रूपी तृणकुटीर जल रहा है, उसकी शांति संवेगरूपी शीतल क्षमा जल से करनी चाहिए। कवि रूपक अलंकार का परम धनी है उसने चार कषायों को वृक्ष का रूपक दिया है। इस वृक्ष की हिंसा जड़ है, विषय वासना शाखाएँ हैं, और जन्मजरा तथा मरणरूपी फल है। अतः जो इस वृक्ष के कटु फलों को छोडना चाहता है उसे इसको जड से उखाड कर फैंक देना चाहिए। यथा
चउव्विह-कसायरूक्खो हिंसादढमूल-विसयबहुसाहो। जम्मजरा-मरण-फलो उम्मूलेयव्वो य मूलाओ।
कवि जीवन को सुखी बनाने का नुस्खा आकिंचन को ही मानता है। अतः वह कहता है कि दुःख के नष्ट होने से मोह नष्ट हो जाता है। मोह के नष्ट होने से तृष्णा, तृष्णा के नष्ट होने से लोभ और लोभ के नष्ट होने से सभी प्रकार के भयविवाद नष्ट हो जाते हैं। यथा
दुक्खं हयंजस्स न होइ मोहो, मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा। तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाई।वही 79॥
इस प्रकार कवि ने उपमा, उत्प्रेक्षा, यमक परिसंख्या आदि अलंकारों का प्रयोग कर इस धर्ममूलक काव्य को उच्चता प्रदान की है। उपदेशक और तथ्यनिरूपक शैली के प्रयोग के साथ नैतिक उपमानों की कवि ने झड़ी लगा दी है। तथ्य
प्राकृत रत्नाकर 0 333