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काव्य-साधना का प्रमुख क्षेत्र था । कवि के जन्म - काल के सम्बन्ध में विद्वानों के विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि वे ई. 677 से ई. 959 के बीच कभी हुए थे। कवि ने आचार्य जिनसेन (ई. 783) को अपने 'रिट्ठनेमिचरिउ' में स्मरण किया है तथा महाकवि पुष्पदन्त (ई. 959) ने स्वयम्भू का उल्लेख किया है। अतः महाकवि स्वयम्भू आठवीं शताब्दी का उत्तरार्ध एवं नवीं के पूर्वार्ध में हुए होंगे।
अपभ्रंश के महाकवि पुष्पदन्त ने स्वयंभू कवि को व्यास, भास, कालिदास, भारवि, बाण, चतुर्मुख आदि की श्रेणी में विराजमान किया है। अन्य कवियों ने उन्हें महाकवि, कविराज, कविराज चक्रवर्ती जैसी उपाधियों से सम्मानित किया है। हिन्दी भाषा एवं साहित्य के जाने माने समीक्षक राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें हिन्दी के पाँचों युगों के कवियों में सबसे बड़ा बताया है। 332. महानिसीहं
महानिशीथ को समस्त अर्हत् प्रवचन का सार माना गया है। वस्तुतः अर्धमागधी ग्रन्थों में मूल रूप में जो महानिशीथ था, वह यथावत रूप में उपलब्ध नहीं रहा। वर्तमान में आचार्य हरिभद्र द्वारा उसका परिष्कार कर संशोधन किया गया रूप उपलब्ध है, जिसे सिद्धसेन, यक्षसेन, नेमिचन्द्र, जिनदासगणि आदि आचार्यों ने भी बहुमान्य किया है। इसकी भाषा एवं विषय के स्वरूप को देखते हुए यह सूत्र अर्वाचीन ही प्रतीत होता है । इसमें छ: अध्ययन एवं दो चूला हैं, जिनमें क्रमशः 18 पापस्थान, पाप कर्मों की आलोचना, पंच मंगल का महत्त्व, कुशील साधु का संसर्ग छोड़ने, गुरु-शिष्य के पारिवारिक सम्बन्ध तथा आलोचना एवं प्रायश्चित्त का वर्णन मिलता है।
333. महाबन्ध
महाबन्ध का दूसरा नाम महाधवल भी है । महाबन्ध छक्खण्डागम का छठा खण्ड है। इसकी रचना आचार्य भूतबलि ने चालीस हजार श्लोक प्रमाण में की है। इसका मंगलाचरण भी पृथक नहीं है, बल्कि यह चतुर्थ वेदना खण्ड में उपलब्ध मंगलाचरण से ही सम्बद्ध है। विशालता के कारण ही महाबन्ध के पृथक ग्रन्थ का रूप प्राप्त हुआ है। इस ग्रन्थ में चार अधिकार हैं
2860 प्राकृत रत्नाकर