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(1) प्रकृतिबन्ध अधिकार (2) स्थितिबन्ध अधिकार (3) अनुभागबन्ध अधिकार (4) प्रदेशबन्ध अधिकार
कर्मस्वरूप के अवगत करने के लिए यह ग्रन्थ अत्यधिक उपयोगी है। 334. महाराष्ट्री और अपभ्रंश ___ मध्ययुग में प्राकृत भाषा का जितना अधिक विकास हुआ, उतनी ही उसमें विविधता आई। किन्तु साहित्य में प्रयोग बढ़ जाने के कारण विभिन्न प्राकृतें महाराष्ट्री प्राकृत के रूप में एकरूपता को ग्रहण करने लगीं। प्राकृत के वैयाकरणों ने साहित्य के प्रयोगों के आधार पर महाराष्ट्री प्राकृत के व्याकरण के कुछ नियम निश्चित कर दिए। उन्हीं के अनुसार कवियों ने अपने ग्रन्थों में महाराष्ट्री प्राकृत का प्रयोग किया। इससे प्राकृत भाषा में स्थिरता तो आई किन्तु उसका जन-जीवन से सम्बन्ध दिनों दिन घटता चला गया। वह साहित्य की भाषा बनकर रह गई। अतः जनबोली का स्वरूप उससे कुछ भिन्नता लिए हुए प्रचलित होने लगा, जिसे भाषाविदों ने अपभ्रंश भाषा का नाम दिया है। इस तरह से प्राकृत ने लगभग 6-7 वीं शताब्दी में अपना जनभाषा अथवा मातृभाषा का स्वरूप अपभ्रंश को सौंप दिया। यहाँ से प्राकत भाषा के विकास की तीसरी अवस्था प्रारम्भ हई। फिर भी शौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृत में आगे भी साहित्य लिखा जाता रहा है। 335. महाराष्ट्री प्राकृत
जिस प्रकार स्थान भेद के कारण शौरसेनी आदि प्राकृतों को नाम दिये जाते हैं उसी तरह महाराष्ट्र प्रान्त की जनबोली से विकसित प्राकत का नाम महाराष्ट्री प्रचलित हुआ है। इसने मराठी भाषा के विकास में भी योगदान किया है। महाराष्ट्री प्राकृत के वर्ण अधिक कोमल और मधुर प्रतीत होते हैं। अतः इस प्राकृत का काव्य में सर्वाधिक प्रयोग हुआ है। ईसा की प्रथम शताब्दी से वर्तमान युग तक इस प्राकृत में ग्रन्थ लिखे जाते रहे हैं। प्राकृत वैयाकरणों ने भी महाराष्ट्री प्राकृत के लक्षण लिखकर अन्य प्राकृतों की केवल विशेषताएँ गिना दी हैं । यद्यपि चंड, वररुचि एवं हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरणों में महाराष्ट्री' प्राकृत का कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु काव्य की भाषा प्राकृत महाराष्ट्री ही मानी जाती थी।अतः उसी को सामान्य प्राकृत स्वीकार किया है। वररुचि के 10वें एवं 11वें परिच्छेदों में शौरसेनी की
प्राकृत रत्नाकर 0 287