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चन्दनक अवन्तिजा में, विदूषक प्राच्या में, संवाहक, स्थावरक, कुंभीलक, वर्धमानक, भिक्षु तथा रोहसेन मागधी में बोलते हैं। शकार शकारी में, दोनों चाण्डाल चांडाली में, द्यूतकर एवं माथुर ढक्की में बात करते हैं। नायक चास्दत्त, विट, आर्यक आदि शेष पात्र संस्कृत बोलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस नाटक में प्रयुक्त प्राकृत भाषाएँ भरत के नाट्यशास्त्र में विवेचित प्राकृत भाषाओं के नियमानुसार प्रयुक्त हुई हैं। ___ मृच्छकटिकम् के संस्कृत टीकाकार पृथ्वीधर ने मृच्छकटिकम् में प्रयुक्त विभिन्न प्राकृतों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार प्राकृत भाषाएँ सात मानी गई हैं। मागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, शौरसेनी, अर्धमागधी, वाह्वीका तथा दक्षिणात्या। अपभ्रंश भी सात हैं - शकारी, चांडाली, आभीरी, शबरी, द्राविड़ी, उड्रजा एवं ढक्की। इन भाषाओं में से मृच्छकटिकम् में सात भाषाविभाषाओं का प्रयोग हुआ है। शौरसेनी, अवन्तिजा, प्राच्या, मागधी, शकारी, चाण्डाली और ढक्की। शकार द्वारा बोली जाने वाली शकारी भाषा का यह उदाहरण दृष्टव्य है -
शुवण्णअंदेमि पिअंवदेमि पडेमि शीशेणशवेश्टणेण। तधा विमंणेच्छशिशुद्धदन्ति किं शेवअंकश्टमआमणुश्शा॥(8.31)
अर्थात् - मैं तुम्हें स्वर्ण देता हूँ, प्रिय बोलता हूँ, पगड़ी सहित सिर देता हूँ तथापि हे श्वेत दाँतों वाली! तुम मुझ सेवक को नहीं चाहती हो। मनुष्य बड़े ही 345. यतिवृषभआचार्य
जैन परम्परा के करणानुयोग साहित्य में अग्रणी कर्मवर्गणा कर्मप्रकृति के गणितीय विषय को प्रकट करने वाले आचार्य यतिवृषभ का नाम बहुत प्रसद्धि है। श्रुत परम्परा के आचार्य के बाद आर्यमंक्षु और नागहस्ति से कषायपाहुड के अध्ययनकर्ता के रूप में यतिवृषभ को स्मरण किया जाता है । उन्होंने कषायपाहुड़ का अध्ययन करके कर्मसाहित्य के क्षेत्र में अपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने सर्वप्रथम सूत्र के अर्थ को चूर्णि के रूप में प्रस्तुत किया है, जो शौरसेनी प्राकृत में है। चूर्णि के सूत्रों में अर्थ गाम्भीर्य और पांडित्य का गौरव झलकता है।
जयधवला टीका में यतिवृषभ का उल्लेख कई स्थानों पर किया गया है। कभी उन्हें सूत्रकार के रूप में और कभी वृत्तिकार के रूप में प्रस्तुत किया है।
प्राकृत रत्नाकर 0297