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परम्पराओं के पोषक एक महान् दिगम्बर आचार्य थे जिन्होंने अपने अपूर्व संयमी
और दीर्घ तपस्वी जीवन की सम्पूर्ण अनुभूतियों का यत्र-तत्र सचित्र चित्रण किया है। इनके नाम आदि के आधार पर यह सिद्ध होता है कि ये दक्षिण भारत (वट्टकेरी स्थान) के निवासी थे। मूलाचार नाम से भी सिद्ध होता है कि ये दिगम्बर परम्परा के मूलसंघ में महान् एवं प्रमुख आचार्य थे। इस संघ के प्रथम आचार्य कुन्दकुन्द और इनके बाद आचार्य वट्टकेर हुए। इसी मूलसंघ के श्रमणों के आचार्य का प्रतिपादक होने से इस ग्रन्थ का नाम मूलाचार और उनके संघ का नाम मूलसंघ प्रचलित हुआ। मूलाचार अपनी विषय-वस्तु और भाषा आदि की दृष्टि से तृतीय शती के आसपास का सिद्ध होता है। अतः आचार्य वट्टकेर का समय भी यही माना जा सकता है। इन्होंने मूलाचार का प्रणयन एक निश्चित रूपरेखा को दृष्टि में रख कर किया। इस एक कृति ने ही उन्हें अमर बना दिया क्योंकि सैकड़ों, हजारों वर्षों से आज तक समस्त श्रमणों को यह ग्रन्थ दीपक का कार्य करता आ रहा है। 364. वर्धमानदेशना - वर्धमानदेशना नामक ग्रन्थ के रचयिता साधुविजयगणि के शिष्य शुभवर्धनगणि हैं । विक्रम संवत् 1552 (ईसवीं सन् 1495) में इन्होंने इस ग्रंथ की रचना की। प्राकृत पद्यों में लिखा हुआ यह ग्रंथ उपासकदशा नाम के सातवें अंग में से उद्धृत किया गया है। इसके प्रथम विभाग में तीन उल्लास हैं। यहाँ विविध कथाओं द्वारा महावीर के धर्मोपदेश का प्रतिपादन है। उदाहरण के लिये, सम्यक्त्व का प्रतिपादन करने के लिए हरिबल, हंसनृप, लक्ष्मीपुंज, मदिरावती, धनसार, हंसकेशन, चारुदत्त, धर्मनृप, सुरसेन, महासेन, केशरि चोर, सुमित्र मंत्री, रणशर नप ओश्र जिनदत्त व्यापारी की कथाओं का वर्णन है। दसरे उल्लास में कामदेव श्रावक आदि और तीसरे उल्लास में चुलनी पिता श्रावक आदि की कथायें कही गई हैं। 365.वसन्तराज,एम.डी.
प्रोफेसर एम.डी. वसन्तराज कन्नड़, प्राकृत एवं जैनविद्या के समर्पित शिक्षक रहे हैं। आपने कर्नाटक में प्राकृत एवं जैनविद्या के प्रचार-प्रसार में महनीय सेवाएँ
प्राकृत रत्नाकर 0313