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किन्तु उनमें मतभेद भी है कि कौन लोग इस प्राकृत का अधिक प्रयोग करते थे। संस्कृत नाटकों में सामान्य स्तर के पात्र इसका व्यवहार करते हैं, किन्तु इस सम्बन्ध में निश्चित नियम नहीं हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि मागधी कोई एक निश्चित भाषा नहीं थी, अपितु कई बोलियों का उसमें सम्मिश्रण था, जिनमें ज के स्थान पर य, र के स्थान पर ल, स के स्थान पर श तथा अकारान्त शब्दों में ए का प्रयोग होता था ।
मागधी किस प्रदेश की भाषा थी, यह निश्चित कहना कठिन है। क्योंकि मगध जनपद के बाहर कई जगह उसका प्रयोग होता था तथा उसमें भी एकरूपता प्राप्त नहीं होती। लेकिन इसे मगध देश की भाषा मानना ठीक है, क्योंकि मागधी भाषा को राजभाषा होने का सौभाग्य प्राप्त था । और शायद बोलियों के सम्पर्क में आने से इसके पालि, अर्धमागधी, आदि कई रूप प्रचलित हुए । वररुचि एवं मार्कण्डेय ने मागधी की प्रकृति (मूल) होने का श्रेय शौरसेनी को दिया है । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मागधी शौरसेनी से जन्मी है । जिस प्रकार शौरसेनी मध्यप्रदेश में प्रचलित वैदिक युग की कथ्य भाषा से उत्पन्न हुई है उसी प्रकार मागधी ने भी उस कथ्य भाषा से जन्म ग्रहण किया है, जो वैदिक काल में मगध देश में प्रचलित थी । किन्तु मध्यप्रदेश की सामान्य प्राकृत शौरसेनी के प्रभाव में मागधी अवश्य रही। मध्यप्रदेश और मगध की राजनीति का भी इन भाषाओं की प्रमुखता पर प्रभाव पड़ता रहा है ।
मागधी के भी दो रूप होते हैं - (1) प्रथम युग की मागधी, जो अशोक के शिलालेखों तथा अश्वघोष के नाटकों में पाई जाती है तथा (2) मध्ययुग की मागधी, जो भास के और परिवर्तीकाल के नाटकों में तथा प्राकृत के वैयाकरणों द्वारा प्रयुक्त हुई है। इन प्रमुख भेदों के अतिरिक्त मागधी के अन्तर्गत अन्य लोकभाषाओं का भी समावेश था। शकारी, चांडाली और शबरी ये तीन भाषाएँ मागधी के ही रूपान्तर हैं। प्राकृत वैयाकरणों के अनुसार मागधी की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं । यथा
1. अकारान्त पु. शब्दों के प्रथमा के एकवचन में एकारान्त रूप होते हैं। सामान्य प्राकृत की तरह 'ओ' नहीं होता ।
यथा - एषः पुरुषः > एशे पुलिशे, मेषः मेशे, नरः > नले आदि
292 प्राकृत रत्नाकर