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319. भरत मुनि :
प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में जिन संस्कृत आचार्यों ने अपने मत प्रकट किये हैं, इनमें भरत सर्वप्रथम हैं। प्राकृत वैयाकरण मार्कण्डेय ने अपने प्राकृत - सर्वस्व के प्रारम्भ में अन्य प्राचीन प्राकृत वैयाकरणों के साथ भरत को स्मरण किया है। भरत का कोई अलग प्राकृत व्याकरण नहीं मिलता है। भरतनाट्यशास्त्र के 17वें अध्याय में 6 से 23 लोकों में प्राकृत व्याकरण पर कुछ कहा गया है। इसके अतिरिक्त 32वें अध्याय में प्राकृत के बहुत से उदाहरण उपलब्ध हैं, किन्तु स्रोतों का पता नहीं चलता है।
डॉ. पी. एल. वैद्य ने त्रिविक्रम के प्राकृत शब्दानुशासन व्याकरण के 17वें परिशिष्ट में भरत के लोकों को संशोधित रूप में प्रकाशित किया है, जिनमें प्राकृत के कुछ नियम वर्णित हैं। डॉ. वैद्य ने उन नियमों को भी स्पष्ट किया है। भरत ने कहा है कि प्राकृत में कौन से स्वर एवं कितने व्यंजन नहीं पाये जाते। कुछ व्यंजनों का लोप होकर उनके केवल स्वर बचते हैं। यथा
वच्चंति कगतदयवा लोपं, अत्थं च से वहति सरा। खघथधभा उण हत्तं उति अत्थं अमुचंता ॥8॥
प्राकृत की सामान्य प्रवृत्ति को भरत ने अंकित किया है कि शकार का सकार एवं नकार का सर्वत्र णकार होता है। यथा- विष > विस, शङ्का > संका आदि। इसी तरह ट ड, ज ढ, प व, ड ल, च य, थ ध, प फ आदि परिवर्तनों के सम्बन्ध में संकेत करते हुए भरत ने उनके उदाहरण भी दिये हैं तथा लोक 18 से 24 तक में उन्होंने संयुक्त वर्णों के परिवर्तनों को सोदाहरण सूचित किया है और अन्त में कह दिया है कि प्राकृत के ये कुछ सामान्य लक्षण मैंने कहे हैं। बाकी देशी भाषा में प्रसिद्ध ही हैं, जिन्हें विद्वानों को प्रयोग द्वारा जानना चाहिये
एवमेतन्मया प्रोक्तं किंचित्प्राकृत लक्षणम्। शेषं देशीप्रसिद्वं च ज्ञेयं विप्राः प्रयोगताः ॥
प्राकृत व्याकरण सम्बन्धी भरत का यह शब्दानुशासन यद्यपि संक्षिप्त है, किन्तु महत्त्वपूर्ण इस दृष्टि से है कि भरत के समय में भी प्राकृत व्याकरण की आवश्यकता अनुभव की गयी थी। हो सकता है, उस समय प्राकृत का कोई 276 0 प्राकृत रत्नाकर