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युगप्रधानाचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण 104 वर्ष 6 माह और 6 दिन की आयु पूर्ण कर वी. नि.स. 1115 में स्वर्गस्थ हुए। उन्होंने विशेषावश्यकभाष्य आदि नौ ग्रंथों का निर्माण किया था। इनमें से सात ग्रन्थ पद्यबद्ध प्राकृत में हैं। एक ग्रन्थअनुयोगद्वारचूर्णि प्राकृत गद्य में है। आचार्य जिनभद्र आगमों के अद्वितीय व्याख्याता थे, युगप्रधान पद के धारक थे, श्रुति आदि अन्य शास्त्रों के कुशल विद्वान् थे, विभिन्न दर्शनशास्त्र, लिपिविद्या, गणितशास्त्र, छन्दशास्त्र, शब्दशास्त्र आदि के अद्वितीय पंडित थे, स्व-पर सिद्धान्त में निपुण थे, स्वाचार-पालन में प्रवण एवं सर्व जैन श्रमणों में प्रमुख थे। भाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण अपने समय के एक प्रभावशाली आचार्य थे। 134.जिनरलसूरि
निर्वाणलीलावतीकथा काव्य के अन्त में ग्रन्थकर्ता की प्रशस्ति दी गई है जिससे इसके रचयिता जिनरत्नसूरि की गुरुपरम्परा पर प्रकाश पड़ता है। वे • सुधर्मागच्छ के थे। इसी गच्छ में निव्वाणलीलावई प्राकृत महाकाव्य के रचयिता जिनेश्वरसूरि हुए। उनकी शिष्यपरम्परा में क्रमशः जिनचन्द्रसूरि - नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि - जिनवल्लभसूरि - जिनदत्तसूरि - जिनचन्द्रसूरि - जिनपतिसूरि - जिनेश्वरसूरि हुए। इन जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनरत्नसूरि हुए। 135.जिनेश्वरसूरि-कथाकोशप्रकरण
इस कृति के रचयिता जिनेश्वरसूरि हैं। ये नवीन युग संस्थापक माने जाते हैं। इन्होंने चैत्यवासियों के विरुद्ध आन्दोलन आरम्भ किया और त्यागी तथा गृहस्थ दोनों प्रकार के समूहों ने नये प्रकार के संगठन किये। चैत्यों की सम्पत्ति और संरक्षण के अधिकारी बने। शिथिलाचारी यतियों को आचारीप्रवण और भ्रमणशील बनाया। 11 वीं शताब्दी में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के यतियों में नवीन स्फूर्ति और नई चेतना उत्पन्न करने का कार्य प्रमुखरूप से जिनेश्वरसूरि ने किया। पुरओ दुल्लहमहिवल्लहस्स अणहिल्लावाडए पयडं। मुक्का वियारिऊणंसीहेणवदव्वलिंगिया॥
-सुगुरुपारतन्त्रयस्तव गा. 10
प्राकृत रत्नाकर 0113