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उपयोग किया है। आचार्य जिनदासगणी का समय विक्रम सं. 650-750 के मध्य होना चाहिए। नन्दी चूर्णि के उपसंहार में उसका रचना समय शक संवत् 598 अर्थात् विक्रम सं.733 है, उससे भी यही सिद्ध होता है।
जिनदासगणी महत्तर ने कितनी चूर्णियाँ लिखीं यह अभी तक पूर्ण रूप से निश्चित नहीं हो सका है तथापि परम्परा के अनुसार उनकी निम्नलिखित चूर्णियाँ मानी जाती हैं (1)निशीथविशेषचूर्णि, (2)नन्दीचूर्णि, (3)अनुयोगद्वारचूर्णि, (4) आवश्यकचूर्णि, (5) दशवैकालिकचूर्णि, (6) उत्तराध्ययनचूर्णि, (7) सूत्रकृतांगचूर्णि। 133.जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण
विशेषावश्यकभाष्य के प्रणेता आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का अपनी महत्त्वपूर्ण कृतियों के कारण जैन साहित्य के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है। ऐसा होते हुए भी उनके जीवन के सम्बन्ध में विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है। उनके जन्म, शिष्यत्व आदि के विषय में कतिपय उल्लेख मिलते हैं। उनके सम्बन्ध में एक आश्चर्यजनक उल्लेख यह भी मिलता है कि वे हरभिद्रसूरि के पट्टधर शिष्य थे, जबकि हरिभद्रसूरि आचार्य जिनभद्र के लगभग सौ वर्ष बाद हुए हैं। विविध उल्लेखों के आधार पर आचार्य जिनभद्र का उत्तरकाल वि.सं. 650 के आसपास सिद्ध होता है।
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने चौदह वर्ष की अल्पवय में दीक्षा ग्रहण की। तीस वर्ष की अपनी सामान्य श्रमण पर्याय में विशुद्ध श्रमणाचार के पालन के साथसाथ उन्होंने आगमों, धर्मग्रन्थों, न्याय, व्याकरण, काव्य, स्व-पर सिद्धान्तों एवं नीतिशास्त्र का तलस्पर्शी अध्ययन किया। वी.नि. सं. 1055 में 29वें युगप्रधानाचार्य हरिलसूरि के स्वर्गस्थ हो जाने पर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण 30वें युगप्रधानाचार्य पद पर आसीन हुए।
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने जीतकल्प, सभाष्य विशेषवती, बृहत्क्षेत्रसमास, ध्यानशतक, बृहत्संग्रहणी और वी. नि. सं. 1076 को चैत्र शुक्ला 15 बुधवार के दिन वल्लभी में महाराजा शीलादित्य प्रथम के राज्यकाल में विशेषावश्यकभाष्य की टीका की रचना कर जिनशासन की महती सेवा की। उन्होंने 90 वर्ष के अपने साधनाकाल में विपुल साहित्य सर्जन कर जिनशासन की उल्लेखनीय सेवा की। 112 0 प्राकृत रत्नाकर