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6. लोकचिकित्सा।
लोक साहित्य लोकवार्ता का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। इसके अन्तर्गत यद्यपि विद्वानों ने अनेक विषयों को संग्रहीत किया है, किन्तु वे सब लोक की विभिन्न अभिव्यक्तियां ही हैं। अतः व्यक्तित्व से रहित समान रूप से समाज की आत्मा को व्यक्त करनेवाली मौलिक अभिव्यक्तियाँ लोक साहित्य की श्रेणी में आती हैं। इन अभिव्यक्तियों को निम्न भागों में बाँटा जा सकता है- धर्मगाथा (लोकगीत), लोककथा, लोकोक्तियाँ, पहेलियाँ आदि।प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य में इन सभी तत्त्वों का समावेश है।
धर्मगाथा- प्राकृत साहित्य का गाथा से निकट का सम्बन्ध है। उसका बहुत सा भाग गाथाबद्ध ही है। साहित्य रचना में गाथा का प्रयोग प्राकृत साहित्यकारों ने लोक से ही ग्रहण किया है। क्योंकि लोक में सरलता से गाये जाने और कंठ तक स्मरण बनाए रखने में पद्यों का प्रयोग बहुप्रचलित था। प्राकृत की गाथाओं की यह अर्थवत्ता ही आज के लोकगीतों की उत्सभूमि है। धीरे-धीरे गाथाओं में लोक अनेक आख्यान भी गाये जाने लगे। गाथाओं में निबद्ध अनेक प्राकृत लोककथाएँ उपलब्ध हैं। इन्हीं प्राकृत कथाओं के गाथारूप से मध्यकालीन व आधुनिक लोकगीतों से आख्यान कहे जाने की परम्परा विकसित हुई प्रतीत होती है, जिन्हें आज भी लोकगाथा के नाम से पुकारा जाता है।
लोककथा- प्राकृत एवं अपभ्रंश कथा साहित्य में लोककथा के अनेक तत्त्व विद्यमान हैं। क्योंकि इन कथाओं की उत्सभूमि ही लोकजीवन है। साहित्य का लोक सम्बन्ध बना रहे इसके लिए प्राकृत कथाकारों ने जो कुछ भी कहा है उसे समूह की वाणी बनाकर और जन-समूह में घुल मिलकर । यही कारण है कि उनकी कथाओं में लोकधर्म, लोकचित्र और लोकभाषा लोककथा के ये तीव्र तथ्य विद्यमान हैं व इनकी प्रचुरता का कारण यह भी है कि प्राकृत कथाकारों का मुख्य उद्देश्य जन जीवन के नैतिक और आध्यात्मिक स्तर को ऊँचा उठाना था। अतः उन्होंने बिना किसी भेद-भाव के लोक जीवन में प्रचलित कथाओं को ग्रहण कर उन्हें धार्मिक एवं उपदेशात्मक शैली में प्रस्तुत कर दिया, किन्तु इससे लोककथाओं की मौलिकता में कोई अन्तर नहीं आया उनके स्वरूप में कुछ जुड़ा ही। 256 0 प्राकृत रत्नाकर