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हैं- भाषा, विभाषा, अपभ्रंश और पैशाची। भाषा के पाँच भेद हैं-महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी। विभाषा के जकारी, चाण्डाली, शबरी, आभीरी और ढक्की ये पाँच भेद हैं । अपभ्रंश के तीन भेद है - नागर, ब्राचड और उपनागर तथा पैशाची के कैकई, पांचाली आदि भेद हैं। इन्हीं भेदोपभेदों के कारण डॉ. पिशल ने कहा है कि महाराष्ट्री जैनमहाराष्ट्री, अर्धमागधी और जैनशौरसेनी के अतिरिक्त अन्य प्राकृत बोलियों के नियमों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मार्कण्डेय कवीन्द्र का प्राकृत सर्वस्व' बहुत मूल्यवान है।
प्राकृत सर्वस्व के प्रारम्भ के आठ पादों में महाराष्ट्री प्राकृत के नियम बतलाये गये हैं। इनमें प्रायः वररुचि का अनुसरण किया गया हैं। नौवें पाद में शौरसेनी और दसवें पाद में प्राच्या का नियमन है। विदूषक आदि हास्य पात्रों की भाषा को प्राच्या कहा गया है। ग्यारहवें पाद में अवन्ती वाल्हीकी का वर्णन है। बारहवें में मागधी के नियम बताये गये हैं। अर्धमागधी का उल्लेख इसी पाद में आया है। इस प्रकार 9 से 12 पादों को भाषाविवेचन का खण्ड कहा जा सकता है। 13वें से 16वें पाद तक विभाषा का अनुशासन किया गया है। जकारी, चाण्डाली, शाबरी आदि विभाषाओं के नियम एवं उदाहरण यहाँ दिये गये हैं। एक सूत्र में ओड्री (उड़िया) विभाषा का कथन है तथा एक में आभीरी का । ग्रन्थ के 17वें एवं 18वें पाद में अपभ्रंश भाषा का तथा 19वें और 20वें पाद में पैशाची भाषा का नियम हुआ है। अपभ्रंश के उदाहरण स्वरूप कुछ दोहे भी दिये गये हैं। इस तरह मार्कण्डेय ने अपने समय तक विकसित प्रायः सभी लोक भाषाओं को, जिनका प्राकृत से घनिष्ठ सम्बन्ध था, अपने व्याकरण में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया है।
मार्कण्डेय ने प्राचीन वैयाकरणों के सम्बन्ध में भी कई तथ्य प्रस्तुत किये हैं। इनमें से शाकल्य एवं कौहल निश्चित रूप से प्राकृत के प्राचीन वैयाकरण रहे होगें, जिनके प्राकृत सम्बन्धी नियमन से प्राकृत व्याकरणशास्त्र समय-समय पर प्रभावित होता रहा है। यद्यपि अभी तक इनके मूल ग्रन्थों का पता नहीं चला है। इस तरह मार्कण्डेय का 'प्राकृत सर्वस्व' कई दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। पश्चिमीय प्राकृत भाषाओं की प्रवृत्तियों के अनुशासन के लिए जहाँ हेमचन्द्र का
प्राकृत रत्नाकर 0263