________________
नाट्यों के भी चार भेद प्राप्त होते हैं- अंचिय (अंचित) रिभिय (रिभित), आरभड (आरभट) और भसोल। इनका विशेष वर्णन नहीं दिया गया है किन्तु नाट्य विधि में अभिनय का होना आवश्यक माना गया है। चार प्रकार के अभिनय बतलाये गये हैं- दिद्वितिय (दार्टान्तिक), पाण्डुसुत, सामन्तोवयणिय (सामन्तोंपयातनिक) और लोगमज्मवसित (लोकमध्यावसित)। अभिनय के चारों भेद भरत के नाट्य में वर्णित अभिनय भेदों से भिन्न प्रतीत होते हैं । यदि इनके शाब्दिक अर्थ लिये जायें तो। (1) मुखतक अंगप्रक्षालन करने वाला अभिनय (2) पाण्डुसुत का कथानक व्यक्त करने वाला अभिनय (3) समान रूप से अंग संचालन द्वारा किया गया अभिनय (4) जनसमुदाय के बीच में ही किये जाने वाला अभिनय की प्रतीति इनसे होती है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में अभिनय शूल्य नाटकों का भी उल्लेख है। यथा- उत्पात (आकाश में उछलना) निपात, संकुचित, प्रसारित, भ्रान्त, सम्भ्रान्त आदि नाटक। राजप्रश्नीयसूत्र में बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि का उल्लेख है। उनमें से कुछ तो भरत नाट्यशास्त्र में उल्लिखित है किन्तु शेष नाट्य विधियां लोकनाट्य के क्षेत्र में खोजी जा सकती हैं। - लोक नाट्य से सम्बिन्धित कुवलयमाला का एक प्रसंग उल्लेखनीय है। एक गांव में पृथ्वी को धन-धान्य से समृद्ध देखकर फसल काटने के समय नट, नर्तक, मुष्टिक, और चारणों का एक दल घूमता हुआ आ पहुँचा। गांव के मुखिया ने उन नटों के तमाशे को देखने के लिए सारे गांव में निमन्त्रण दिया। दिन में काम-काज के कारण ठीक अवसर न जानकर रात्रि के प्रथम पहर में उसे दिखाने की व्यवस्था की गई। ग्रामीण जनता घर के सब कार्यों को निपटाकर अपने-अपने आसन और मशाल ले लेकर तमाशा देखने को पहुंच गई। एक परिवार के तो सभी लोग उसे देखने का मोह संवरण न कर सके और गये, किन्तु घर की बहु नन्दिनी पति के चण्डस्वभाव के कारण अपने जीवन की रक्षा करती हुई घर पर ही रह गई। काफी रात्रि तक वह नाटक चला जिसमें स्त्रीपात्र भी थे। तथा संगीत और गीत आदिद्वारा किसी श्रृंगार-प्रधान आख्यान को अभिनीत किया गया।
इसके अतिरिक्त अन्य नाट्यविधियों का उल्लेख भी प्राकृत साहित्य में मिलता है। नट लोग स्त्री का वेषधारण कर नृत्य करते थे। रास का भी उल्लेख मिलता है।
प्राकृत रत्नाकर 0267