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पालि भाषा की जो विशेषताएँ है, उनमें अधिकांश प्राकृत तत्व हैं । अतः पालि का प्राकृत भाषा का ही एक प्राचीन रूप स्वीकार किया जाता है। पालि भाषा बुद्ध के उपदेशों और तत्संबंधी साहित्य तक ही सीमित हो गयी थी। इस रूढ़िता के कारण पालि भाषा से आगे चलकर अन्य भाषाओं का विकास नहीं हुआ, जबकि प्राकृत की सन्तति निरन्तर बढ़ती रही। किन्तु पालि का साहित्य पर्याप्त समृद्ध है। अतः प्राचीन भारतीय भाषाओं को समझने के लिए पालि का ज्ञान आवश्यक है। पालि में मध्यदेशी भाषा शौरसेनी प्राकृत की प्रवृत्तियाँ भी उपलब्ध होती हैं। भारत में मध्यदेश की बोली का सर्वदा विशेष प्रभाव रहा है। अतः मध्यदेश की भाषा ही पालि का आधार है। इसमें लुड्.लकार आत्मनेपदी क्रियाओं और प्राचीन गण वाली क्रियाओं के रूपों आदि पर छान्दस का प्रभाव से स्पष्ट लक्षित होता है। मथुरा, अवंती, कौशाम्बी, कन्नौज, कौशल आदि स्थानों की बोलियों के प्रभाव से भी पालि भाषा अछूती नहीं है। अतः वैदिक ग्रंथों की संस्कृत तथा अन्य प्राकृत भाषाओं के मिश्रण से पालि भाषा गठित हुई, ऐसा माना जा सकता है। पालि एवं प्राकृत भाषाओं के तुलनात्मक संबंधों का संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार
___पालि और प्राकृत भाषाओं की समानताएँ 1- दोनों भाषाओं का ध्वनि समूह एक समान है। 2- दोनों भाषाओं में ऋ, ऋ, ल, लु, ऐका लोप होता है। 3- ऋध्वनि अ, इ, उ स्वरों में से किसी एक स्वर में परिवर्तित हो जाती हैं। 4- हस्व स्वर ए और ओ का प्रयोग दोनों भाषाओं में मिलता है। 5-विसर्ग का प्रयोग दोनों में नहीं मिलता है। 7- मूर्धन्य ध्वनि दोनों भाषाओं में समान रूप से पायी जाती है। 8- दोनों में द्विवचन नहीं होता है। 9- दोनों में चतुर्थी एवं षष्ठी विभक्ति के रूप प्रायः एक ही रहते हैं। 10-संयुक्त व्यंजनों का समीकरण भी दोनों में एक समान होता है। 11-चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग दोनों में हेत्वर्थ के लिये होता है।
1720 प्राकृत रत्नाकर