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व्यवहारसूत्र, धवला, पाक्षिक आदि सूत्रों में विभिन्न प्रकीर्णक ग्रन्थों के नाम गिनाये गये हैं, किन्तु इस क्रम में कुछ ग्रन्थों का विच्छेद हो गया तथा कुछ नये शास्त्र ग्रन्थ जुड़ते भी गये हैं। अतः सर्वमान्य रूप में प्रकीर्णक की संख्या निश्चित नहीं हो सकी है। वर्तमान समय में श्वेताम्बर परम्परा के 45 आगमों की मान्यता में निम्न 10 प्रकीर्णक मान्य हैं। 1. चउसरण 2. आउरपच्चक्खाण 3. महापच्चक्खाण 4. भत्तपरिण्णा 5. तंदुलवेयालिय 6.संथारय 7.गच्छायार 8.गणिविजा 9.देविंदत्थय 10. मरणसमाहि। 235.प्रकीर्णक ग्रंथ
आगम साहित्य के उपरान्त विभिन्न विषयों पर लिखित ग्रंथ प्रकीर्णक साहित्य के रूप में जाने जाते हैं । बारह प्रकीर्णक ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । यथा(1)चतुःशरण
चतुःशरण का अपरनाम कुशलानुबन्धि अध्ययन भी है। इसमें 63 गाथाएँ हैं। प्रारम्भ में षडावश्यक पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि सामायिक आवश्यक से चारित्र की शुद्धि होती है, चतुर्विंशति जिनस्तवन से दर्शन की विशुद्धि होती है, वन्दन से ज्ञान में निर्मलता आती है। प्रतिक्रमण से ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों में विशुद्धि होती है। कायोत्सर्ग से तप की शुद्धि होती है और पच्चक्खाण से वीर्य की विशुद्धि होती है।
अरिहंत सिद्ध साहू केवलिकहिओ सुहावहो धम्मो। एएचउरी चउगइहरणा, सरणं लहइ धन्नो॥11॥- चतुःशरण, गा.2
ग्रन्थ के अन्त में वीरभद्र का उल्लेख होने से प्रस्तुत प्रकीर्णक के रचयिता वीरभद्र माने जाते हैं। इस पर भुवनतुंग की वृत्ति और गुणरत्न की अवचूरि भी प्राप्त होती है। (2)आतुरप्रत्याख्यान (आउरपच्चक्चखाण)
आतुरप्रत्याख्यान मरण से सम्बन्धित है। इसके कारण इसे अन्त कालीन प्रकीर्णक भी कहा गया है। इसका दूसरा नाम बृहदातुरप्रत्याख्यान भी है। इस प्रकीर्णक में 70 गाथाएँ हैं। दस गाथा के पश्चात् कुछ भग गद्य में है। प्रथम
प्राकृत रत्नाकर 0179