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संबंध में निम्न उद्धरण दिये जाते हैं1- 'प्रकृतिः संस्कृतं, तत्र भवं तत् आगतं वा प्राकृतम् ' (प्राकृत-व्याकरण,
हेमचंद्र) 2- 'प्रकृतिः संस्कृत तत्र भवं प्राकृतमुच्यते' (प्राकृतसर्वस्व, मार्कण्डेय) 3- 'प्रकृति संस्कृत तत्र भवत्वात् प्राकृतं स्मृतम् (प्राकृतचन्द्रिका) 4- 'प्रकृतेः संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृतो मता' (षड्भाषाचन्द्रिका,
लक्ष्मीधर) 5- 'प्राकृतस्त तु सर्वमेव संस्कृतं योनिः' (प्राकृत-संजीवनी, वसन्तराज) इत्यादि।
वैयाकरणों के अतिरिक्त कई अलंकारिकों ने भी यही मत प्रकट किया है। इन सबका तात्पर्य यह है कि प्राकृत शब्द 'प्रकृति' शब्द से बना है। प्रकृति का अर्थ है, संस्कृत भाषा से जो उत्पन्न हुई है, वह है प्राकृत भाषा। किन्तु प्राकृत शब्द की यह व्याख्या अप्रमाणिक ही नहीं है, भाषातत्व से असंगत भी है। यह अप्रमाणिक है क्योंकि प्रकृति शब्द का मुख्य अर्थ संस्कृत भाषा कभी नहीं होता। गौण अर्थ लिया नहीं जा सकता। अव्यापक इसलिए है कि प्राकृत के सभी शब्द संस्कृत से उत्पन्न नहीं हैं और असंगत इसलिए कि कभी साहित्य की भाषा से किसी भी बोल-चाल की भाषा का जन्म नहीं होता। अतः संस्कृत से जनभाषा प्राकृत कैसे उत्पन्न हो सकती है? संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति' या योनि जिस अर्थ में कहा गया है, उसकी तह तक पहुँचना आवश्यक है।
'प्रकृतिः संस्कृतम्' का अर्थ है कि प्राकृत भाषा को सीखने के लिए संस्कृत शब्दों को मूलभूत रखकर उनके साथ उच्चारण भेद के कारण प्राकृत शब्दों का जो साम्य-वैषम्य है, उसको दिखाना। अर्थात् संस्कृत भाषा के द्वारा प्राकृत भाषा का सीखने का प्रयत्न करना। प्राकृत शब्द की व्युत्पति करते समय 'प्रकृत्या स्वभावेनं सिद्धं प्राकृतम् अथवा प्रकृतीनां साधरणजनानामिदं प्राकृतम् अर्थो को स्वीकार करना चाहिये। प्राचीन आचार्यों ने भी प्राकृत' शब्द का यही अर्थ ग्रहण किया है। आठवीं शताब्दी के महाकवि वाक्पतिराज ने प्राकृत भाषा को जनभाषा माना है। इससे ही समस्त भाषाओं का विकास स्वीकार किया है। 10वीं सदी के विद्वान् कवि राजशेखर ने प्राकृत का संस्कृत की योनि विकास-स्थान कहा है।
प्राकृत रत्नाकर 0193