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आगम ग्रन्थों की कथाओं की एक विशेषता यह भी है कि वे प्रायः यथार्थ से जुड़ी हुई हैं। उनमें अलौकिक तत्त्वों एवं भूतकाल की घटनाओं के कम उल्लेख हैं। कोई भी कथा वर्तमान के कथानायक के जीवन से प्रारम्भ होती है। फिर उसे बताया जाता है कि उसके वर्तमान जीवन का सम्बन्ध भूत एवं भविष्य से क्या हो सकता है। ऐसी स्थिति में श्रोता की कथा के पात्रों से आत्मीयता बनी रहती है। जबकि वैदिक कथाओं की अलौकिकता चमत्कृत तो करती है, किन्तु उससे निकटता का बोध नहीं होता है। बौद्ध कथाओं में भी वर्तमान की कथा का अभाव खटकता है। उनमें बोधिसत्व के माध्यम से बौद्ध सिद्धान्त अधिक हावी हैं। यद्यपि इन तीनों परम्पराओं में किसी प्राचीन सामान्य स्रोत से भी कथाएँ ग्रहण की गई हैं, जिसे विन्तरनित्स ने श्रमणकाव्य कहा है। 251. प्राकृत और सर्वोदय सिद्धान्त
प्राकृत-साहित्य के आचार्यों ने केवल आत्महित का सिद्धान्त ही प्रतिपादित नहीं किया अपितु जगत् के लिए कल्याणकारी अणुव्रत-पालन के माध्यम से सर्वोदय सिद्धान्त का भी प्रतिपादन किया है। शौरसेनी प्राकृत-साहित्य में वर्णित सर्वोदयी-संस्कृति का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । वह वस्तुतः हृदय-परिवर्तन एवं आत्मगुणों के विकास की संस्कृति है। उसका मूल आधार मैत्री, प्रमोद, कारुण्य एवं माध्यस्थ-भावना है। सद्गुण तो सत्साहित्य के अध्ययन, श्रेष्ठ गुणीजनों के संसर्ग, आत्म-संयमन तथा शील एवं सदाचरण से ही आ सकते हैं। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है
णविदेहो वंदिजई णविय कुलोणविय जादि-संतुत्तो। को वंददिगुणहीणो ण हु समणोणेवसावगो होदि॥8-(दंसणपाहुड)27 अर्थात् न तो शरीर की वन्दना की जाती है और न कुल की। उच्च जाति की भी वन्दना नहीं की जाती । गुणहीन की वन्दना तो करेगा ही कौन? क्योंकि न तो गुणों के बिना व्यक्ति मुनि-पद धारण कर सकता है और न ही श्रावक पद। मानवीय गुण वन्दनीय हैं । यथा
सव्वे विय परिहीणा रूवविरुवा विपडिद-सुवया वि। सीलंजेसु सुसीलं सुजीविदं माणुसंतेसिं॥- (सीलपाहुड 18) अर्थात् भले ही कोई हीन जाति का हो, सौन्दर्य-विहीन कुरूप हो, विकलांग
प्राकृत रत्नाकर 0205