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सम्पदान कारक चतुर्थी = के लिए, को
जिसके लिए कोई कार्य किया जाय या कोई वस्तु दी जाय तो उस व्यक्ति या वस्तु संज्ञा/सर्वनाम में सम्प्रदान करक होता है। सम्प्रदान कारक वाले शब्दों में चतुर्थी विभक्ति के प्रत्ययों का प्रयोग होता है। जैसे - सावगो समणस्स आहारं देहि =श्रावक श्रमण के लिए आहार देता है। निरो माहण्णस्स धणं देदि =राजा ब्राह्मण को धन देता है। गुरू बालअस्स पोत्थअंदेदि =गुरू बालक के लिए पुस्तक देता है। ___ इस प्रकार की वस्तु देने में श्रद्धा, कीर्ति, उपकार आदि का भाव दाता के मन में होता है। सम्प्रदान कारक अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। यथाणमो अरिहंताणं = अरिहंतो को नमस्कार।। पुत्तस्स दुद्धं रोगयइ = पुत्र को दूध अच्छा लगता है। जणओ पुत्तस्स कुज्झदि= पिता पुत्र पर क्रोधित होता है। साहू णाणस्स झादि = साधू, ज्ञान के लिए ध्यान करता है। अपादान कारक पंचमी = से (विलग)
एक दूसरे से अलग होने को अपाय कहते हैं। जैसे- मोहन घोड़े से गिरता है, पेड़ से पत्ता गिरता है आदि। इस विलग होने की क्रिया को अपादान कहते हैं। अपादान कारक में पंचमी विभक्ति के प्रत्यय प्रयुक्त होते हैं। यथा
___ मोहणो अस्सत्तो पडदि, रुक्खत्तो पत्तं पडइ आदि। पंचमी विभक्ति का प्रयोग कतिपय धातुओं, अर्थों एवं प्रसंगों में भी किया जा है। उनमें से कुछ प्रमुख हैं -
सो चोरओ बीहइ = वह चोर से डरता है। जोद्धा चोरत्तो रक्खदि = योद्धा चोर से रक्षा करता है। मुणी उवज्झायदो भणदि = मुनि उपाध्याय से पढता है। बीजत्तो अंकुीरो जायदि = बीज से अंकुर उत्पन्न होता है। धणत्तो विजा सेट्टा = धन से विद्या श्रेष्ठ है।
प्राकृत रत्नाकर 0 243