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प्राकृत-चन्द्रिका नामक रचनाओं के भी संकेत मिलते हैं। किन्तु दुर्भाग्य से आज वे सभी रचनायें उपलब्ध नहीं हैं। भले ही वे आज अप्राप्य हैं, किन्तु उक्त उल्लेखों से यह धारणा अवश्य बनती है कि ईसा-पूर्व की कुछ सदियों से लेकर परवर्ती कुछ सदियों तक बहुलमात्रा में शाकल्य को आदर्श मानकर प्राकृत के कुछ व्याकरणग्रन्थ लिखे गए होंगे।
261. प्राकृत के अन्य संस्थान एवं विभाग
प्राकृत एवं जैनविद्या के अध्ययन, अनुसंधान, शिक्षण में संलग्न देश में अन्य संस्थान एवं विभाग भी हैं। उनके पूर्ण विवरण उपलब्ध न होने से उनका यहाँ उल्लेख नहीं हो पाया है। जैनालाजी एवं प्राकृत विभाग मैसूर, जैनालाजी विभाग धारवाड़, पालि-प्राकृत विभाग अहमदाबाद, पालि-प्राकृत विभाग, नागपुर, जैन अध्ययन केन्द्र, जयपुर, प्राकृत और जैनागम विभाग वाराणसी, जैनदर्शन विभाग वाराणसी, जैनदर्शन विभाग नई दिल्ली, संस्कृत-प्राकृत विभाग आरा, वीरसेवा मंदिर नई दिल्ली, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्राकृत विद्या विकास फण्ड, अहमदाबाद, गणेश प्रसाद वर्णी संस्थान, वाराणसी, प्राकृत परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी (अहमदाबाद), सन्मति तीर्थ पूना, प्राकृत भाषा एवं साहित्य विभाग, दिल्ली आदि विभागों और संस्थानों का भी प्राकृत और जैनविद्या के विकास में महत्ती भूमिका रही है। इनके प्रकाशनों का भी विशेष महत्त्व है।
262. प्राकृतानुशासन (पुरुषोत्तम)
प्राकृतानुशासन के कर्ता पुरुषोत्तम आचार्य हेमचन्द्र के समकालीन थे। ये बंगाल के निवासी थे। इन्होंने प्राकृत व्याकरणशास्त्र की पूर्वीय शाखा का प्रतिनिधित्व किया है। पुरुषोत्तम 12वीं शताब्दी के वैयाकरण हैं। उन्होंने प्राकृत अनुशासन नाम का प्राकृत व्याकरण लिखा है। इस ग्रन्थ के 3 से लेकर 20 अध्याय उपलब्ध हैं। प्रथम दो अध्याय लुप्त हैं। तीसरा अध्याय भी अपूर्ण है। प्रारंभिक अध्यायों में सामान्य प्राकृत का विवेचन है। आगे महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती एवं मागधी का अनुशासन किया गया है। इसके पश्चात् विभाषाओं में शाकारी,
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