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279. प्राकृत में स्वर एवं व्यंजन
जिन वर्णों के उच्चारण में अन्य वर्णों के सहयोग की अपेक्षा नहीं होती वे स्वर कहलाते हैं और जिन वर्णों के उच्चारण करने में स्वर वर्णों का सहयोग लिया जाता है वे व्यंजन कहे जाते हैं । प्राकृत में स्वररहित व्यंजनों का प्रयोग नहीं होता है । सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण प्राकृत में स्वर एवं व्यंजनों का प्रयोग इस प्रकार स्वीकृत है
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ओ
1- ह्रस्व स्वर - अ, इ, उ, ए,
2- दीर्घ स्वर - आ, ई, ऊ, ए, ओ
कुल 10 स्वर
प्राकृत में ऐ, औ, ऋ, लृ, लृ इन 6 स्वरों का प्रयोग लुप्त हो गया- इनमें से ऐ औ की अभिव्यक्ति ए और ओ के रूप में की जाती है । लृ, लृ का सर्वथा लोप हो गया, किन्तु ऋ स्वर की अभिव्यक्ति अ, इ, उ आदि स्वरों के माध्यम होती है । अं और अः का भी प्राकृत में स्वतन्त्र अस्तित्त्व नहीं रहा। अं (-) का प्रयोग
व्यंजन के स्थान (म् न्) पर होने लगा और अः विसर्ग का लोप होकर उसके स्थान पर प्रायः ओ एवं ए स्वर का प्रयोग प्राकृत में प्रचलित हो गया। ए और ओ
`स्वर जब संयुक्त व्यंजन के पूर्व प्रयुक्त होते हैं तब उन्हें ह्रस्व स्वर माना जाता है यथा- जोव्वणं (यौवनम्), एक्केक्कं ( एकैकम्) । वैसे छन्द आदि के समय इन्हें ए, ओ को दीर्घ गिना जाता है। आगे चलकर अपभ्रंश आदि में छन्द में भी ये दोनों स्वर ह्रस्व गिने जाने लगे। प्राकृत में व्यंजनों की संख्या 29 है।
क वर्ग - क, ख, ग, घ टवर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण पवर्ग - प, फ, ब, भ, म
च वर्ग - च, छ, ज, झ
त वर्ग - त, थ, द, ध, न
अन्तस्थ - य, र, ल, व
ऊष्माक्षर - स, ह
प्राकृत में ङ एवं ञ का प्रयोग स्वतन्त्र रूप से नहीं होता। ये अपने वर्ग के व्यंजनों के साथ अनुस्वार के रूप में प्रयुक्त होते हैं । यथा - जंघा (जङ्घा), , वांछा (वाङ्छा) । इसी प्रकार श एवं ष के स्थान पर 'स' का प्रयोग होता है। केवल मागधी प्राकृत में 'श' प्रयुक्त है। क्ष, त्र, ज्ञ, इन संयुक्त व्यंजनों का स्वतन्त्र प्रयोग प्राकृत में नहीं है। इनके स्थान पर अन्य वर्णों का प्रयोग हो जाता है । यथा
प्राकृत रत्नाकर 0 237
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