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(1) आदि स्वरागम : अ स्नेहः > सणेहो
अग्निः > अग्गी अइ स्निग्धं > सणिद्धं, सिणिद्धं कृष्णः > कसणो,कसिणो इ श्लोकः > सिलोओ क्लेशः > किलेसो
अर्हत् > अरहो, अरिहो अरुहो > अस्हो (उका आगम) (2) मध्य स्वरागम: इ वीर्य - वीरिअं,
ब्रह्मचर्य > अग्गी इ स्यात् ) सिआ
कृष्णः ) कसणो,कसिणो दर्शनं ) दरिसणं
वज्रं ) वइरंउ तन्वी , तणुवी
पृथ्वी ) पुहवी 277. प्राकृत व्यंजन विकास :
व्यंजन विकास की जो प्रवृत्तियाँ या शैली प्राकृत में थी, वह सभी प्राकृतों में अपनायी गई है। इन सामान्य व्यंजन-परिवर्तनों के साथ प्राकृत में सिद्धान्त ग्रन्थों में कतिपय विशिष्ट स्वरों एवं व्यंजनों का विकास भीपाया जाता है। व्यंजन - विकास की निम्नांकित अवस्थाएँ प्राकृत में वैयाकरणों ने प्रतिपादित की हैं1. आदि सरल व्यंजन विकास : नियम 1 : (क) स्वर के परे अनादि असंयुक्त न को ण आदेश होता है और (ख) न आदि में होने पर उसे विकल्प से ण होता है। यथामाणुसो > मानुषः णिव्वाणं - निर्वाणं णरो, नरो > नरः णई, नई , नदी नियम 2 : (क) शब्द के आदि में प्रयुक्त य का ज हो जाता है तथा
(ख) उपसर्ग युक्त अनादि य का भी ज होता है। यथाजदा -> यदा जुदो , युतः संजमो > संयम अवजसो > अपयशः नियम 3 : श और ष को स हो जाता है। यथाश कुसलो < कुशलः संयणं । निर्वाणं श सद्दो शब्दः, सुद्धं ( नदी
प्राकृत रत्नाकर 0231