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रूप में क्षेत्रीय भाषाओं को यह विरासत सौंपी है। भाषा का सरलीकरण उन शब्दों को ग्रहण करने से आता है जो जन सामान्य के बीच अभिव्यक्ति के माध्यम से होते हैं। क्षेत्रीय भाषाओं में प्राकृत के शब्दों का भण्डार है। आधुनिक आर्य भाषाओं में भी ऐसे अनेक शब्द आज प्रयुक्त होते हैं, जो प्राकृत अपभ्रंश की यात्रा करते हुए यहाँ तक पहुँचे हैं ।
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किन्तु लोक शब्दों से ही किसी भाषा का काम नहीं चलता । उसे शिष्ट भाषा के शब्द एवं प्रवृत्तियों को भी अपनाना पड़ता है । यही कारण है कि प्राकृत व अपभ्रंश में तत्सम और तदभव शब्दों का भी समावेश है। भारतीय भाषाओं के इतिहास से यह भलीभाँति ज्ञात होता है कि कभी लोकभाषाओं ने देशी शब्दों को साहित्य के सिंहासन पर बैठाया तो कभी परिष्कृत शब्दों को भी लोक मानस के अनुकूल उन्होंने गढ़ा है। ध्वनि विकास के द्वारा ऐसे शब्द किसी भी भाषा में प्रयुक्त होते रहते हैं ।
276. प्राकृत में स्वर विकास
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा वैदिक भाषा के समकालीन प्रचलित उदीच्या, मध्यदेशीया एवं प्राच्या बोलियों में जो सरलीकरण की प्रवृत्ति थी, वह प्राकृत में भी उपलब्ध है। अपने सम्पर्क में आने वाली संस्कारित भाषा व साहित्यिक भाषा के ' शब्द समूहों, स्वरों के परिवर्तन प्राकृत में दृष्टिगोचर होते हैं। यह परिवर्तन की प्रवृत्ति भाषा को शब्दभण्डार की दृष्टि से समृद्ध बनाती है । वास्तव में इस प्रकार के स्वर एवं वर्ण परिवर्तन ही शब्द गढ़ने के आधार हैं। प्राचीन समय में संस्कृत भाषा साहित्यिक सम्पर्क की भाषा थी और शौरसेनी प्राकृत लौकिक सम्पर्क की । अतः इस संस्कृत के शब्द किन-किन परिवर्तनों द्वारा मूल शौरसेनी प्राकृत में ग्रहण किये गये हैं, इसकी संक्षिप्त जानकारी यहाँ प्रस्तुत है | स्वर - परिवर्तन की ये स्थितियाँ प्राप्त हैं -
(अ) स्व स्वरों का दीर्घीकरण (ब) दीर्घ स्वरों का हस्वीकरण (स) स्वरों को अन्य स्वर का आदेश एवं (द) अव्यय के स्वरों का लोप । इसी क्रम में हम यहाँ उन उदाहरणों के द्वारा प्राकृत के स्वर - परिवर्तनों की जानकारी प्राप्त करेंगे जो (1) शौरसेनी के सिद्धान्त ग्रन्थों में उपलब्ध हैं तथा जो
228 प्राकृत रत्नाकर