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किसी भी भाषा के दो रूप होते हैं- कथ्य और साहित्य-निबद्ध । कथ्य भाषा सर्वदा परिवर्तनशील होती है, किन्तु जब साहित्य और व्याकरण के नियमों से बंध जाती है तो उसका विकास रुक जाता है। अतः पुनः जनभाषा से एक नई . भाषा उभर कर आती है जो आगे साहित्य और जनमानस में सम्प्रेषण का माध्यम बनती है। यही स्थिति संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के साथ हुई है। संस्कृत शब्दों के सादृश्य और पार्थक्य के आधार पर उन्हें तीन भागों में विभक्त किया गया है(1)तत्सम (2)तद्भव एवं (3)देश्य। जो शब्द संस्कृत से प्राकृत में ज्यों के त्यों ग्रहण कर लिये हैं तथा जिनकी ध्वनियों में कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ वे तत्सम शब्द हैं । यथा-नीर , धूलि, कवि, संसार, कुल, जल आदि। तथा जिनकी ध्वनियों में जो शब्द संस्कृत से वर्णलोप, वर्णागम, वर्णपरिवर्तन और वर्णविकार द्वारा उत्पन्न हुए हैं वे तद्भव या संस्कृतभव कहलाते हैं । यथा-अग्ग (अग्र इट्ठट ( इष्ट, ईसा < ईष्या, गअ ( गज, चक्क ( चक्र, फंस ( स्पर्श आदि। सभी प्राकृत-व्याकरण इन्हीं तद्भव शब्दों का ही अनुशासन करते हैं। वास्तव में इन्हीं शब्दों के कारण प्राकृत को संस्कृत का बिगड़ा हुआ रूप अथवा संस्कृत से प्राकृत की उत्पत्ति आदि मानने की धारणाएँ उत्पन्न हुई हैं, जो निराधार हैं।
प्राकृत भाषा में कुछ ऐसे भी शब्द हैं जिनका संस्कृत से कोई संबंध नहीं है तथा जिनका अर्थ मात्र रूढ़ि पर अवलम्बित है। ऐसे शब्दों को देश्य या देशी कहो गया है, जो जनसाधारण की बोलचाल की भाषा से लिये गये हैं। यथा-अगय (दैत्य), आकसिय (पर्याप्त), दुराव (हस्ती), ऊसअ (उपधान), एलविल (धनाढ्य), कदो (कुमुद), चउक्कर (कार्तिकेय), गड्डा (बलात्कार) आदि। इस प्रकार के देश्य शब्दों के प्रयोग के कारण स्पष्ट हो जाता है कि प्राकृत का लोकभाषा के साथ हमेशा घनिष्ठ संबंध बना रहा है। जबकि संस्कृत क्रमशः शिष्ट समुदाय में सिमटती चली गयी।संस्कृत और प्राकृत के संबंध स्पष्ट रूप से समझ लेना आवश्यक है। वैयाकरणों ने प्राकृत की प्रकृति संस्कृत को किस रूप में माना है, इससे यह भी स्पष्ट हो जायेगा तथा इससे द्वितीय स्तरीय प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति के स्रोत का भी पता चल सकेगा।
प्राकृत के कुछ वैयाकरण प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति में प्रकृति' शब्द का अर्थ संस्कृत करते हुए प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति लौकिक संस्कृत से मानते हैं। इस
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