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वाले थे। इनका समय ईसवीं सन् की 17वीं शताब्दी माना जाता है रामशर्मा ने विषय के विवेचन में पुरुषोत्तम के प्राकृतानुशासन का ही अनुगमन किया है। इस पर लेखक की स्वोज्ञ टीका है। इनमें तीन शाखायें हैं। पहली शाखा में दस स्तवक हैं जिनमें महाराष्ट्री के नियमों का प्रतिपादन है। दूसरी शाखा में तीन स्तवक हैं, जिनमें प्रथम मागधी और दाक्षिणत्या का विवेचन है। तृतीय स्तवक में विभाषा का विधान है। विभाषाओं में शाकारिकी, चांडालिका, शाबरी, आभारिका और टक्की का विवेचन है। तीसरा शाखा में नगर, अपभ्रंश, वाचड, अपभ्रंश तथा पैशाचिक का विवेचन है। पैशाचिक के दो भेद हैं- एक शुद्ध, दूसरा संकीर्ण। कैकय, शौरसेन, पांचाल, गौड़, मागध और वाचड का यहाँ विवेचन किया है। 244. प्राकृत एवं अपभ्रंश
मध्ययुग में ईसा की दूसरी से छट्ठी शताब्दी तक प्राकृत भाषा का साहित्य में कई रूपों में प्रयोग हुआ। वैयाकरणों ने प्राकृत भाषा में भी नियमों के द्वारा एकरूपता लाने का प्रयत्न किया, किन्तु प्राकृत में एकरूपता नहीं आ सकी। यद्यपि साहित्य में कृत्रिम प्राकृत का प्रयोग प्रारम्भ हो गया था। इससे वह लोक से दूर हटने लग गई थी। लेकिन जिन लोक प्रचलित भाषाओं में साहित्यिक प्राकृतों का विकास हुआ था, वे लोक भाषाएँ अभी भी प्रवाहित हो रही थीं। उन्होंने एक नई भाषा को जन्म दिया, जिसे अपभ्रंश कहा गया है। यह प्राकृत भाषा के विकास की तीसरी अवस्था है। प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं का क्षेत्र प्रायः एक जैसा था तथा एक विशेष प्रकार का साहित्य इनमें लिखा गया है। विकास की दृष्टि से भी इनमें घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतः कई विद्वानों ने प्राकृत एवं अपभ्रंश को एक मान लिया है, जबकि वे दोनों स्वतंत्र भाषाएँ हैं। अपभ्रंश जन सामान्य की भाषा का पूर्णतया प्रतिनिधित्व करती है। इसके अतिरिक्त विभक्ति, प्रत्यय, परसर्गों में भी प्राकृत और अपभ्रंश में स्पष्ट अन्तर है। अपभ्रंश में देशी रूपों की बहुलता है। यह उकार बहुला भाषा है। ___ अपभ्रंश को आभीरी, भाषा, देशी एवं अवहट्ट आदि नाम भी समय समय पर दिये गये हैं। ये सब नाम अपभ्रंश के विकास को सूचित करते हैं। पश्चिमी भारत की एक बोली - विशेष आभीरी से अपभ्रंश प्रभावित है। जन भाषा की बोली
1900 प्राकृत रत्नाकर