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केवल प्रवरसेन का ही नाम उपलब्ध होता है । अतएव प्रवरसेन इस काव्य ग्रन्थ के रचयिता हैं, यह सर्वमान्य है | महाकवि बाण ने हर्षचरित (1/14/ 5) में सेतुबन्ध का नामोल्लख निम्न प्रकार किया है
कीर्त्तिः प्रवरसेनस्य प्रयाता कुमुदोज्जवला । सागरस्य परं पारं कपिसेनेव सेतुना ॥
बाण का समय सातवीं सदी माना जाता है, जो प्रवरसेन के सर्वाधिक निकटवर्ती हैं। कम्बुज के एक शिलालेख से भी बाण की उक्ति का समर्थन होता है। इस शिलालेख के आधार पर कह सकते हैं कि दसवीं सदी के प्रारम्भ तक सेतुबन्ध काव्य का रचयिता प्रवरसेन ही माना जाता था। लेख में बताया हैयेन प्रवरसेनेन धर्मसेतु विवृण्वता ।
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परः प्रवरसेनोऽपि जितः प्राकृतसेतुकृत् ॥
अर्थात् यशोवर्मा (889-909 ईसवीं) अपनी प्रवरसेन द्वारा स्थापित धर्मसेतुओं से दूसरे प्रवरसेन को पीछे छोड़ गया क्योंकि उसने केवल एक साधारण प्राकृत सेतु सेतुबन्ध महाकाव्य का निर्माण किया है
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इतिहास में प्रवरसेन नाम के चार राजा उपलब्ध होते हैं, दो कश्मीर में और दो दक्षिण के वाकाटक वंश में प्रथम प्रवरसेन का समय ईसवी प्रथम शताब्दी और द्वितीय प्रवरसेन का समय ईस्वी सन् द्वितीय शताब्दी आता है । विचार करने पर कश्मीर के इन दोनों ही प्रवरसेनों का सम्बन्ध सेतुबन्ध के रचयिता के साथ स्थापित करना संभव नहीं जान पड़ता है। वाकाटक वंश में भी दो प्रवरसेन हुए हैं । सन् 410 ई. में प्रभावती के द्वितीय पुत्र ने प्रवरसेन द्वितीय के नाम से राज्यभार संभाला। इसका राज्यकाल 440 ई. तक रहा। यही प्रवरसेन प्रस्तुत सेतुबन्ध नामक महाकाव्य का रचयिता है। प्रवरसेन ने वैष्णव धर्मानुयायी होने के कारण विष्णु के अवतार रूप में रामकथा को अपने इस महाकाव्य का आधार बनाया है । अतः इस काव्य का रचनाकाल पाँचवीं शताब्दी है । 241. प्रश्नव्याकरण (निमित्तशास्त्र )
पण्हवागरण नामक दसवें अर्धमागधी साहित्य के अंग आगम से भिन्न इस नाम का एक ग्रंथ निमित्त विषयक है, जो प्राकृत भाषा में गाथाबद्ध है। इसमें 450
188 प्राकृत रत्नाकर