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239. प्रवचनसार(पवयणसारो)
शौरसेनी आगम साहित्य में प्रवचनसार की गणना द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत की जाती है। इस ग्रन्थ के टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार इसमें 275 गाथाएँ हैं तथा आचार्य जयसेन के अनुसार 317 गाथाएँ हैं। यह ग्रन्थ तीन भागों में विभक्त करके लिखा गया है। प्रत्येक भाग के प्रारम्भ में महत्त्वपूर्ण मंगलाचरण की गाथाएँ हैं। प्रथम भाग ज्ञानाधिकार में आत्मा एवं ज्ञान के एकत्व पर बल दिया गया है यथा - जो जाणदि सो णाणं हवदि। (गा. 36) अर्थात् जो जानता (ज्ञाता) है वह ज्ञान है। इस अधिकार में केवलज्ञान का विशिष्ट विवेचन हुआ है। केवलज्ञान की महत्ता को प्रदर्शित करते हुए कहा गया है कि जीव जब सम्पूर्ण रूप से केवलज्ञान को प्राप्त होता है, तब जीव, पुद्गलादि द्रव्यों की समस्त अतीत, वर्तमान एवं अनागत पर्यायें उस केवलज्ञानी के ज्ञान में प्रतिभाषित हो जाती हैं। वह उन सभी पर्यायों को जानते एवं देखते हुए भी उनमें लिप्त नहीं होता है। इसके अतिरिक्त इस अधिकार में इन्द्रिय-अतीन्द्रिय सुख, शुभ-अशुभ एवं 'शुद्धोपयोग तथा मोहक्षय का भी निरूपण हुआ है।
ज्ञेयाधिकार में षड्द्रव्यों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। द्रव्य को सत् अर्थात् उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य युक्त कहा है। इसके अतिरिक्त इस अधिकार में जीव का लक्षण, जीव एवं पुद्गल का सम्बंध, निश्चय-व्यवहारनय का अविरोध एवं शुद्धात्म स्वरूप आदि विषयों का विवेचन किया है। तीसरे चारित्राधिकार में मुनि की बाह्य एवं आभ्यान्तरिक क्रियाओं की शुद्धता का प्रतिपादन हुआ है। इस सन्दर्भ में दीक्षा-विधि, छेद का स्वरूप, युक्त आहार, उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग आदि का विवेचन हुआ है। वस्तुतः प्रवचनसार एक शास्त्रीय ग्रन्थ के साथ-साथ नवदीक्षित श्रमण हेतु एक व्यवहारिक नियम पुस्तिका भी है, जो आचार्य कुन्दकुन्द की आध्यात्मिक अनुभूति से ही प्रकट हुई है। इस ग्रन्थ पर अमृतचन्द्राचार्य और जयसेनाचार्य की प्रसिद्ध संस्कृत टीकाएँ प्रकाशित हैं। 240. प्रवरसेन
इस महाकाव्य का रचयिता प्रवरसेन नामक महाकवि है। आश्वासों के अन्त में प्राप्ति पुष्पिकाओं में पवरेसेण विरए के साथ कालिदासकए पद भी पाया जाता है । सेतुबन्ध की कुछ पाण्डुलिपियाँ इस प्रकार की भी उपलब्ध हैं, जिनमें
प्राकृत रत्नाकर 0 187