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इस भाषा में बृहत्कथा नामक पुस्तक लिखे जाने का उल्लेख है। किन्तु वह मूल रूप में प्राप्त नहीं है। उसके रूपान्तर प्राप्त हैं, जिनसे मूल ग्रन्थ का महत्त्व ज्ञात होता है।
वररुचि एवं हेमचन्द्र ने पैशाची भाषा की विशेषताओं का उल्लेख किया है। आगे के वैयाकरणों ने पैशाची के भेद-प्रभेद बतलाए हैं। कुछ विशेष उदाहरण भी दिए हैं। मार्कण्डेय ने इसे शूरसेन और पांचाल की भाषा कहा है। वस्तुतः यह भ्रमणशील किसी जाति विशेष की भाषा थी। इसमें कई प्रदेशों की बोलियों के तत्त्व सम्मिलित हैं। यथा1. ज्ञ के स्थान पर ज होता है। प्रज्ञा> पञा आदि। 2. वर्ग के तृतीय व चतुर्थ वर्ण का प्रथम व द्वितीय वर्ण में परिवर्तन। ___ यथा- मेघः > मेखो, राजा > राचा, मदन > मतन आदि। 3. ष्ट के स्थान पर सट और स्नान के स्थान पर सन आदेश । यथा
कष्ट > कसट, स्नान > सनान आदि। 4. मध्यवर्ती क,ग, च आदि वर्गों का लोप नहीं होता। यथा--
शाखा > साखा, प्रतिभास > पतिभास आदि। हेमचन्द्र, त्रिविक्रम, लक्ष्मीधर आदि प्राकृत वैयाकरणों ने चूलिका पैशाची का भी उल्लेख किया है । पैशाची से इसमें थोड़ा सा अन्तर है। यथा1.र के स्थान पर विकल्प से ल। यथा__गोरी > गोली, चरण > चलन, राजा > लाचा आदि। 2. भ् को फ् आदेश। यथा- भवति > फोति आदि। 234. प्रकीर्णक
श्वेताम्बर जैन आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने प्रकीर्णक को परिभाषित करते हुए कहा है कि अरहंतों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करते हुए श्रमण-निर्ग्रथ भक्ति भावना एवं श्रद्धावश मूल भावना से दूर न रहते हुए, जिन ग्रन्थों का निर्माण करते हैं, उन्हें प्रकीर्णक कहते हैं। भगवान् ऋषभदेव के 84,000 तथा भगवान् महावीर के 14,000 प्रकीर्णक होने का उल्लेख मिलता है। नंदीसूत्र, स्थानांगसूत्र,
178 0 प्राकृत रत्नाकर