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देने पर उसकी जितनी आयु अवशेष रहती है, उसका वर्णन किया गया है। अन्त में इस बात पर प्रकाश डाला है कि प्रस्तुत शरीर जन्म, जरा, मरण एवं वेदनाओं से भरा हुआ एक प्रकार का शकट है। अतः ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे सम्पूर्ण दुःखों से मुक्ति प्राप्त हो सके। (6) संस्तारक
जैन साधना पद्धति में संथारा-संस्तारक का अत्यधिक महत्त्व है। जीवन भर में जो भी श्रेष्ठ और कनिष्ठ कृत्य किये हों उसका लेखा लगाकर अन्तिम समय में समस्त दुष्प्रवृत्तियों का परित्याग करना, मन, वाणी और शरीर को संयम में रखना, ममता से मन को हटाकर समता में रमण करना, आत्मचिन्तन संस्तारक यानि संथारे का आदर्श है। मृत्यु से भयभीत होकर उससे बचने के लिए पापकारी प्रवृत्तियाँ करना, रोते और बिलखते रहना यह उचित नहीं है। जैनधर्म का यह पवित्र आदर्श है कि जब तक जीओ, तब तक आनन्दपूर्वक जीओ और जब मृत्यु आ जाये तो विवेकपूर्ण आनन्द के साथ मरो।
प्रस्तुत ग्रन्थ में 123 गाथाएँ हैं । इसमें मृत्यु के समय अपनाने योग्य तृण आदि शैया का महत्त्व प्रतिपादित किया है। संस्तारक पर आसीन होकर पण्डितमरण को प्राप्त करने वाला श्रमण मुक्ति को वरण करता है। प्रशस्त संथारे का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि जैसे पर्वतों में मेरु, समुद्रों में स्वयंभूरमण और तारों में चन्द्र श्रेष्ठ है उसी प्रकार सुविहितों में संथारा सर्वोत्तम है। मेरु व्व पव्वयाणं सयंभुरमणुव्वचेव उदहीणं।
चंदो इव ताराणं तह संथारो सुविहिआणं॥- संस्तारक, गाथा 30 अतीत काल में संथारा करने वाली महान्आत्माओं का संक्षेप में परिचय दिया है। उनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैं- अर्णिकापुत्र, सुकोशलऋषि, अवन्ति, कार्तिकार्य, चाणक्य, अमृतघोष, चिलातिपुत्र, गजसुकुमाल आदि इनके उपसर्गजय की प्रशंसा भी की गई है। (7) गच्छाचार(गच्छायार)
इसमें गच्छ अर्थात् समूह में रहने वाले श्रमण-श्रमणियों के आचार का वर्णन है। इस प्रकीर्णक में 137 गाथाएँ हैं । यह प्रकीर्णक महानिशीथ, विजयविमरगणि
प्राकृत रत्नाकर 0 181