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12-भविष्यकाल के लिये क्रियात्मक धातु में 'इस्स' (स्स) और इहि (हि) लगाने के बाद प्रत्यय जोड़े जाते हैं ।
उपर्युक्त समानाताओं के अतिरिक्त पालि एवं प्राकृत भाषाओं के व्यंजनपरिवर्तनों की विशेषताओं में भी सामान्य समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। विद्वानों प्राकृतों के साथ पालि के साम्य-वैशम्य का अध्ययन किया है । 225. पासनाहचरियं
इसमें 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चरित विस्तार से दिया है, जो पाँच प्रस्तावों में विभक्त है। यह प्राकृत गद्य-पद्य में लिखी गई सरस रचना है जिसमें समासान्त पदावली और छन्द की विविधता देखने में आती है। इसमें संस्कृत के अनेक सुभाषित भी उद्धृत हैं । इसका ग्रन्थाग्र 9000 प्रमाण है। इस ग्रन्थ की अपनी विशेषता है । अन्य ग्रन्थों में पार्श्वनाथ के दस भवों का वर्णन मिलता है। तीसरे, पांचवें, सातवें और नवें भव में देवलोक एवं नव ग्रैवेयक में देव रूप से पार्श्वनाथ उत्पन्न हुए थे। इन चार भवों की गणना इस चरित्र के लेखक ने नहीं ली, इसलिए शेष छः भवों का वर्णन ही दिया गया है। इस प्राकृत चरित ग्रन्थ में संस्कृत के गुणचन्द्र द्वारा रचित उत्तरपुराण में दिये गये पार्श्वनाथ चरित से कुछ बातों में अन्तर है ।
226. पासनाहचरियं - देवभद्राचार्य
इस चरित ग्रन्थ के कर्ता देवभद्राचार्य हैं । ये विक्रम की 12वीं शताब्दी के महान् विद्वान् एवं उच्चकोटि के साहित्यकार थे। इनका नाम आचार्य पदारूढ़ होने के पहले गुणचन्द्रगणि था । उस समय संवत् 1139 में श्री महावीरचरियं नामक विस्तृत 12024 लोक प्रमाण ग्रन्थ रचा। दूसरा ग्रन्थ कथारत्नकोष है जो आचार्य पदारूढ़ होने के बाद वि. सं. 1158 में रचा था। प्रस्तुत पासनाहचरियं की रचना उन्होंने वि. सं. 1168 में गोवर्द्धन श्रेष्ठि के पुत्र यशदेव श्रेष्ठि की प्रेरणा से की थी ।
227. पालि - प्राकृत भाषाओं के ज्ञाता डॉ. हर्मन जैकाबी
जैनविद्या का अध्ययन करने वाले विद्वानों में इस समय के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. हर्मन जैकाबी थे, जिन्होंने प्राकृत वाङमय का विशेष अनुशीलन किया है ।
प्राकृत रत्नाकर 173