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जैकोबल ने औसगे वेल्ते एत्से लिंगन इन महाराष्ट्री महाराष्ट्री प्राकृत की चुनी हुई कहानियाँ नाम से एक पाठ्यपुस्तक तैयार की, जो सन् 1886 ई. में लिपजिंग (जर्मनी) में प्रकाशित हुई। इसके इण्ट्रोडक्शन में उन्होंने महाराष्ट्री प्राकृत के सम्बन्ध में विशद विवेचन किया है तथा वैदिक भाषाओं से आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं तक के विकास को प्रस्तुत किया है। जैकोबी ने अपने द्वारा सम्पादित प्राकृत ग्रन्थों की भूमिकाओं के अतिरिक्त प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में स्वतन्त्र निबन्ध भी लिखे हैं । सन् 1912-13 में उन्होंने प्राकृत देर जेस उवर आइने नीव सन्धिरीगल इन पाली उण्ड उबर दी वेटोमिंग इण्डिश्चिन स्प्राखन नामक निबन्ध लिखा जो पालि-प्राकृत भाषाओं पर प्रकाश डालता है। जैन कथा साहित्य के आधार पर प्राकृत का सर्वप्रथम अध्ययन जैकोबी ने ही किया है। इस सम्बन्ध में उनका उवर डैस प्राकृत इन डेर इत्सेलंग लिटरेचर डेर जैन नामक निबन्ध महत्वपूर्ण है। 228.पिंडणिज्जुत्ती __ अर्धमागधी आगम साहित्य में पिंडनियुक्ति एवं ओघनियुक्ति की गणना कहीं मूलसूत्रों में और कहीं प्रकीर्णक साहित्य में की जाती है, फिर भी साधुओं के आचार-व्यवहार का निरूपण होने के कारण इन दोनों ग्रन्थों को श्वेताम्बर परम्परा के मूल 45 आगमों में सम्मिलित किया गया है। पिंड का अर्थ है - श्रमण के ग्रहण करने योग्य आहार । इसमें श्रमणों की आहार विधि का वर्णन हुआ है, अतः इसका पिंडनियुक्ति नाम सार्थक है। इसके रचयिता आचार्य भद्रबाहु हैं। दशवैकालिकसूत्र के पाँचवें अध्याय पिंडैषणा पर लिखी गई नियुक्ति के विस्तृत हो जाने के कारण पिंडनियुक्ति के नाम से अलग आगम की मान्यता दी गई है। भद्रबाहु ने इस ग्रन्थ में 671 प्राकृत गाथाओं में पिंडनिरूपण, उद्गमदोष, उत्पादनदोष, ग्रासदोष, एषणादोष आदि का विवेचन किया है।
पिण्ड शब्द पिडि संघाते धातु से बना है। अन्वयार्थ की दृष्टि से सजातीय या विजातीय ठोस वस्तुओं के एकत्रित होने को पिण्ड कहा जाता है। सामायिक दृष्टि से तरल वस्तु को पिण्ड कहा गया है। आचारांग में पानी की एषणा के अर्थ में पिण्डैषणा शब्द का प्रयोग हुआ है। पिण्ड नियुक्ति में अशन, पान, खाद्य और
1740 प्राकृत रत्नाकर