________________
इस कथन से ज्ञात होता है कि अग्रायणीय पूर्व का कुछ अंश लेकर धरसेनाचार्य ने इस ग्रंथ का उद्धार किया। इसमें पहले अट्ठाईस हजार गाथाएँ थीं, उन्हीं को संक्षिप्त करके योनिप्राभृत में रखा है । 151. ज्योतिष्करण्डक
यह रचना वलभी वाचना शताब्दी से पूर्व किसी पूर्वधारी प्राचीन आचार्य द्वारा की गई है। कहते हैं कि आचार्य पादलिप्त ने इस पर टीका लिखी थी। इस ग्रंथ में जैन ज्योतिष और गणित का विवरण दिया गया है जो ईसवीं सन् के आरंभ के पूर्व की अवस्था का द्योतक है। इसका प्रमुख कारण है कि यहाँ बारह राशियों और सात वारों का उल्लेख नहीं, तथा इसमें बुध शुक्र आदि ग्रहों का भी विवरण नहीं मिलता ।
152. ज्योतिषसार (हीरकलश)
ज्योतिषसार (जोइसहीर) नामक ग्रन्थ की रचना खरतरगच्छीय उपाध्याय देवतिलक के शिष्य मुनि हीरकलश ने वि. सं. 1621 में प्राकृत में की है। इसमें दो प्रकरण हैं । इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति बम्बई के माणकचन्द्रजी भण्डार में है । मुनि हीरकलश ने राजस्थानी भाषा में ज्योतिषहीर या हीरकलश ग्रंथ की रचना 900 दोहों में की है, जो श्री साराभाई नवाब (अहमदाबाद) ने प्रकाशित किया है । इस राजस्थानी ग्रंथ में जो विषय निरूपित है वही इस प्राकृत ग्रंथ में भी निबद्ध है।पं. अम्बालाल शाह ने जैन साहित्य के बृहत् इतिहास भाग 5 में इसका परिचय दिया है ।
153. टीका साहित्य
दार्शनिक दृष्टि से आगम साहित्य को और अधिक विस्तार से समझाने हेतु प्राचीन मनीषी आचार्यो द्वारा जिस साहित्य की रचना की गई, वह टीका साहित्य के नाम प्रसिद्ध हुआ । टीकाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं । कहीं कहीं तथा विशेषतः कथानकों में प्राकृत का आश्रय लिया गया है । टीकाओं की रचनाओं का क्रम तीसरी शताब्दी से ही प्रारम्भ हो गया था। वर्तमान में जो टीकाग्रंथ प्राप्त हैं, उनमें आचार्य हरिभद्रसूरि (आठवीं शताब्दी) के ग्रंथों का महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी आवश्यक, दशवैकालिक, नंदी एवं अनुयोगद्धार पर टीकाएँ उपलब्ध हैं। उन्होंने
प्राकृत रत्नाकर
123